कहानियाँ बुनने के लिए अक्सर हमें दूर नहीं जाना होता। वे हमारे आस-पास ही हैं। हम जहाँ भी, जिस मुहल्ले में भी बैठे हों, वहाँ कुछ दूर एक चौक होगा। अलग-अलग मुहल्लों में ख़ास तरह के लोग रहते होंगे। जिसकी जैसी औक़ात, जैसा विश्वास, जैसा रंग-रूप, समाज उस तरह से अपने गेत्तो (ghetto) बनाता चला जाता है।
राकेश कायस्थ ने यह उपन्यास एक चर्चित और संवेदनशील प्लॉट पर लिखा है। जब मंडल-कमंडल का समय था, रथयात्रा, बाबरी मस्जिद विध्वंस से बंबई बम धमाकों की पृष्ठभूमि बन रही थी, उस समय आप कहाँ थे? अगर आप किसी मुहल्ले में थे, तो आप स्वयं को वहीं बैठा पाएँगे। अपनी सामाजिक हैसियत के हिसाब से आरामगंज चौक पर, रैयत टोली या वाल्मीकिनगर में। अगर आप कहीं नहीं थे, तो भी।
ऐसी पृष्ठभूमि पर कथाएँ नयी नहीं है, कहन भी नया नहीं है, लेकिन उसकी उपज नयी है। भीष्म साहनी के ‘तमस’ से लेकर काशीनाथ सिंह के ‘काशी का अस्सी’ तक की थोड़ी-बहुत छाप मिल सकती है। जिन शब्दों को लाग-लपेट कर उचारा जाता है, उसे लेखक ने बोल्डली लिख दिया है। यह लिख दिया कि हिंदू मुहल्लों के लोग मुसलमानों के विषय में क्या कहते हैं, मुसलमान मुहल्लों में हिंदुओं पर कैसी पंचैती बैठती है और मंडल कमीशन के साथ भंगी-चमार मुहल्ले की क्या रंगत होती है। कट्टर हिंदू, सेकुलर हिंदू, कट्टर मुसलमान, सेकुलर मुसलमान, सवर्णवादी, समाजवादी ये जितने भी शेड्स हैं, सभी इस कथा में मिल जाएँगे।
एक बात ग़ौर की है, और संभवतः लेखक की पृष्ठभूमि भी है कि नव-उपन्यास लेखन फ़िल्म या वेब-सीरीज़ के लिहाज से लिखा जाता है। इसलिए उपन्यास को उसी तरह बिल्ड किया जाता है, ताकि इसे स्क्रिप्ट में बदलने में आसानी हो। जैसे मुहल्ले और चौक आदि के दृश्य स्पष्ट कर दिए, संवाद (डायलॉग) खूब लिखे, पटाक्षेप (सीन बदलाव) किए, गति तेज की, और कुछ सस्पेंस बना कर रखे। मुझे उम्मीद है कि ‘रामभक्त रंगबाज़’ नाम से पर्दे पर कुछ आएगा, और जब आएगा तो थोड़ा-बहुत हंगामा भी होगा।
वह जब होगा, तब होगा। आप फ़िलहाल पढ़िए, गुनिए, धुनिए।
Author Praveen Jha shares his experience about book Rambhakt Rangbaaz by Rakesh Kayasth