काशी का अस्सी एक सुनने वाली किताब है, यह बात इसे स्टोरीटेल पर सुन कर पक्की हो गयी। जब पढ़ी थी, तो यह भाषा को लेकर कौतूहल उत्पन्न करते हुए भी बेतरतीब सी लगी थी। ऐसा मैला आँचल के साथ भी हुआ था कि कथा से अधिक उसका माहौल और वह आंचलिक भाषा केंद्र बन गयी थी। ऐसी किताबों के ऑडियो रूप जैसे उस पूरी अनूभूति को जीवंत कर देते हैं। कथा के पात्र गया सिंह किस तरह बोलते होंगे, यह कल्पना तो तभी पूरी होगी जब उन्हें बोलते हुए सुनें। यह सिर्फ़ ऑडियो या फ़िल्म के माध्यम से ही संभव है। हालाँकि मोहल्ला अस्सी फ़िल्म भी बनी, मगर वह सेंसर होते-होते इतनी कट-छँट गयी कि बेतरतीबों में भी बेतरतीब बन गयी। यह सिर्फ़ ऑडियो किताब में ही मुमकिन है कि बिना किसी मिलावट के किताब ज्यों-की-त्यों सुन ली जाए।
जो इस पुस्तक के विषय में बिल्कुल नहीं जानते, उन्हें यह बता दूँ कि यह काशीनाथ सिंह नामक एक बुजुर्ग बनारसी लेखक की लिखी किताब है।
काशी में एक अस्सी घाट है, जहाँ धार्मिक अनुष्ठानों के कर्ताओं से लेकर मार्क्सवादी नास्तिकता एक ही चाय के दुकान पर बैठती है। परिस्कृत तत्सम भाषा के साथ गाली-गलौज मिश्रित हो जाती है। राजनैतिक प्रतिबद्धताओं के मध्य जनता की आवाज़ सम्मिलित हो जाती है। लोकतंत्र का लोक ऐसे ही स्थानों पर नज़र आता है। इस ऑडियो में लेखक के ये शब्द किताब की भाषा का एक परिचय देते हैं-
अस्सी और भाषा के बीच ननद-भौजाई और साली-बहनोई का रिश्ता है
अब सवाल यह है कि भला एक घाट या एक चाय के दुकान कैसे पूरी कथा रच ली जाएगी? कथा नहीं रची जा सकती, चलती-फिरती बतकही तो रची जा सकती है। अक्सर ऐसी बतकही कई कथाओं से स्वत: गुजर जाती है। सत्यजीत रे की पाथेर पांचाली में क्या कोई कथा है? हमारे ही जीवन में क्या हर रोज कोई कथा घटती है?
कथा तो काशी की गंगा की तरह बहता पानी है, जिसके एक घाट पर खड़े आप कथाओं को गुजरते हुए देख रहे हैं।
पहले खंड में बाबरी मस्जिद के ध्वंस होने के समय बदलते हुए बनारस की बात है। इतने गंभीर विषय को खिलंदड़ी और कटाक्ष-पूर्ण भाषा में बहुत सहजता से कहते हुए लेखक हमें यह दिखाते हैं, कि जो कुछ भी घट रहा था वह लोक को किस तरह प्रभावित कर रहा था। राजनीति के तिकड़मों के मध्य जनता कहाँ छूट जाती है। उनके रोज़मर्रा के जीवन में कितना बदलाव आता है। सिद्धांतों और आदर्श की घुट्टी कहाँ गुम हो जाया करती है। चूँकि लेखक के सभी पात्र वास्तविक जैसे या वास्तविक ही हैं, तो यह कोरी गल्प न होकर एक कथेतर या ललित निबंध का रूप लेती दिखती है।
कथावाचक की तारीफ़ करनी होगी कि शुरू से अंत तक पात्रों की वाणी एक जैसी रही। तन्नी गुरु जब अलग-अलग समय अपने संवाद कहते हैं तो वही ठसक होती है, जो पहले संवाद में थी। संभवत: उन्हें काशी की भाषा की समझ होगी, तभी इतनी सहजता से उच्चारण कर पा रहे थे। यहाँ तक कि बिरहा गाए भी खूब। बिरहा ऐसी चीज नहीं जो पढ़ कर यूँ ही गा ली जाए, उसे कई बार सुन कर भी यह मुश्किल होगा। यह जरूर एक अनुभवी व्यक्ति होंगे जो इतने आराम से बिरहा गा रहे थे।
कहानी और पात्र बदलते भी रहते हैं। हर बदलाव के साथ यह एक भिन्न सामाजिक व्यंग्य बन जाता है। ऐसा भी नहीं कि बड़े वैश्विक मुद्दों पर बात हो। बल्कि हमारे आम जीवन की चीजें, जैसे पड़ोसी से डाह, आदर्शों और पूँजी की खींचतान, विदेशी सैलानियों से हेल-मेल। इन मुद्दों पर अन्यथा उपन्यास या कथा लिखने की प्रवृत्ति कम दिखती है क्योंकि ये कथाएँ लंबी नहीं हो पाती। जबकि रोज घटा करती हैं। इसी कारण सुनते हुए जुड़ाव होता है कि यह किसी और की नहीं, मेरी ही कथा है। हम सबकी कथा है।
कथा का प्रवाह कुछ यूँ है, जैसे लेखक ने लिखी न हो, इसे बोलते गए हों। किसी स्टेनो सहायक ने वह रिकार्ड कर लिख दी हो। संवाद-बहुल पुस्तक है, और संवादों में कमाल की उपमाएँ हैं। टिप्पणियाँ अक्सर धर्म और राजनीति पर तीखी होती गयी हैं, जो सुनने वाले को भड़का भी सकती है। अमूमन जब कोई बोलता है तो ऐसी बातें निकल जाती हैं, मगर लिखते वक्त वह सावधान हो जाता है क्योंकि किताब तो दुनिया घूमेगी।
मुझे एक धुंधला सा स्मरण है कि काशीनाथ सिंह ने एक बार लिखा या बोला कि इस किताब के बाद कई लोग उनके टाँग-हाथ तोड़ने पर उतारू थे। फ़िल्म तो सेंसर बोर्ड ने महीनों लटकाया ही। मगर वह लिख गए, और किताब बेस्टसेलर बनी। अब ऑडियो में दिग्विजय कर रही है। ऐसा अक्सर तभी होता है जब बात दिल से और बिना लाग-लपेट के, कह दी गयी हो।
आज की दुनिया में इस किताब की व्यवहारिकता बढ़ गयी है। इसमें जो भविष्यवाणियाँ की गयी, वह धीरे-धीरे सामने दिखने लगी है। गया सिंह की बातें सच होने लगी है। साहित्य का उद्देश्य यही तो है कि समाज के ऊपर लगी झीनी चादर हटा कर उसे सामने रख दिया जाए। वहाँ यह पुस्तक पूरी तरह सफल हुई।
इस पुस्तक को किसी योजनाबद्ध तरीके से सुने या न सुनें, किसी बिंदु से उठा कर हर महीने या हर साल ज़रूर सुन लें। लगेगा कि अस्सी घाट पहुँच गए। किताब की मानें तो अस्सी ही इस पृथ्वी का केंद्र है, जहाँ नियमित पहुँचना तो चाहिए ही।
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Author Praveen Jha narrates his experience about book Kashi Ka Assi by Kashinath Singh published by Rajkamal Prakashan.
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