राग पहाड़ी

यह कथा दिखती आधुनिक है, लेकिन इतिहास के झरोखों से उठायी गयी है। उन्नीसवीं सदी से। इसे पढ़ कर लगेगा कि समाज कहीं पहले से संकीर्ण तो नहीं होता जा रहा? क्या इस कथा की नायिका अथवा उस खाँचे के प्रेम आज संभव हैं?

यह इस वर्ष साहित्य अकादमी पुरस्कृत अंग्रेज़ी पुस्तक Things to leave behind का अनुवाद है। मूल पुस्तक नहीं पढ़ कर अनुवाद पढ़ने की वजह एक तो पुष्पेश पंत हैं, दूसरा है सुंदर शीर्षक। हालाँकि दोनों ही शीर्षक उन पाठकों को भटका सकते हैं, जो शीर्षक से किताब टटोलना चाहते हैं। न ही इस पुस्तक में संस्मरण है, न इसका संगीत से संबंध है। यह मुख्यतः स्त्री-पुरुष संबंधों पर आधारित कथा ही है, जिसकी पृष्ठभूमि पहाड़ों की है।

आवरण पर उपशीर्षक की तरह ‘जाति व्यवस्था की कहानी’ टिप्पणी लिखी है, जो अंग्रेज़ी पुस्तक में भी है। यह एक विदेशी कोण से टिप्पणी है, जिन्हें ऐसा प्रतीत हुआ होगा। भारतीय परिवेश की कथाओं में जाति-चर्चा तो होती ही है, लेकिन इसमें कुमाऊँ के ब्राह्मण परिवारों से अधिक जाति-व्यवस्था पर विमर्श नहीं है। मुझे शुबहा हुआ था कि दलित-विमर्श होगा, जो लगभग नहीं मिला। तो फिर मिला क्या?

मिली एक खूबसूरत कहानी। वह भी 1857 के इर्द-गिर्द से शुरू होती हुई ब्रिटिश कालीन अल्मोड़ा की।

इसमें भारतीय सवर्ण स्त्री-पुरुषों के अंग्रेज़ स्त्री-पुरुषों से आकर्षण और अंतर्संबंध उभरते हैं। धर्मनिष्ठ ब्राह्मणों और धर्मनिष्ठ ईसाईयों के मध्य। ऐसा स्पष्ट नहीं कहा गया, लेकिन यह एक परत दिखती है कि इस मोह में भी वर्ण कहीं न कहीं अपनी भूमिका निभा रहा था।

कथा नायिका-प्रधान है, जिसमें तिलोत्तमा और देवकी के किरदार बहुत सुंदर बुने गए हैं। तिलोत्तमा जहाँ रमाबाई और माइकल मधुसूदन दत्त जैसों से प्रभावित होकर ईसाइयत और अंग्रेज़ी के करीब आती है, एक उन्मुक्त छवि बनाती है; वहीं देवकी भी निर्बाध अपना नग्न चित्र एक चित्रकार से बनवाने में नहीं हिचकती। इनके पतियों और प्रेमियों के भी अपने परत-दर-परत द्वंद्व उभरते चले जाते हैं।

यह कथा दिखती आधुनिक है, लेकिन इतिहास के झरोखों से उठायी गयी है। उन्नीसवीं सदी से। इसे पढ़ कर लगेगा कि समाज कहीं पहले से संकीर्ण तो नहीं होता जा रहा? क्या इस कथा की नायिका अथवा उस खाँचे के प्रेम आज संभव हैं?

मैं एक टिप्पणी को दोहराना चाहूँगा कि ऐतिहासिक गल्प और उसके फलक में भारतीय स्त्री-लेखन नयी मिसालें कायम कर रहा है। इस पुस्तक के लिए 1857 के दस्तावेजों से लेकर गजटियर पलटे गए हैं, जबकि उनके बिना भी यह कथा लिखी जा सकती थी। एक वरिष्ठ लेखक जो उसी परिवेश से हों, उनके लिए इतिहास पढ़ना ज़रूरी नहीं था। मगर उन्होंने संदर्भ लिए, दर्ज़ किए, यह लेखन की गंभीरता बताता है। शिल्प पर ज्ञान हावी नहीं होता, मगर बेडू और काफल के फलों में अंतर तो है ही।

[यह अनुवाद राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित है ]

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