एक नाटक की बात। या यूँ कहिए नाटक के अंदर नाटक की बात। साठ के दशक में लिखा गया नाटक अपने समय से कहीं आगे का प्रश्न उठाता है, जिससे न सिर्फ़ भारत बल्कि पश्चिम भी जूझ रहा है। कानूनों पर अभी तक सहमति नहीं बन सकी है। यह प्रश्न है जीवन का, और मरण का।
प्लॉट यूँ है कि बंबई की एक नाटक-मंडली एक गाँव में नाटक करने पहुँचती है। इस मंडली में पेशे से वकील, वैज्ञानिक, शिक्षक, साहित्यकार इत्यादि हैं जो शौक़िया नाटक खेलते हैं। जब वे गाँव पहुँचते हैं, तो सोचते हैं कि एक बार रिहर्सल हो जाए। चूँकि यह नाटक एक कोर्ट-ड्रामा था, वे कई बार यह नाटक कर चुके थे, तो सोचा कि रिहर्सल कुछ अलग किया जाए। क्यों न एक मनमर्जी केस खेला जाए, जिसमें मनमर्जी आरोप, अभियुक्त और वकील हो।
केस शुरू होता है एक शिक्षिका को अभियुक्त का रोल देकर, और आरोप लगता है भ्रूणहत्या का। एक माँ द्वारा अपने नवजात या गर्भ के बच्चे को मार देने का।
चूँकि यह एक नौटंकी थी, तो शुरुआत मज़ाकिया लहज़े में होती है। लेकिन, धीरे-धीरे यह नकली नाटक नकली नहीं रहता। इसमें शिक्षिका के चरित्र पर सच्चे आरोप लगने लगते हैं, जो उसके अविवाहित जीवन और पुरुषों से संबंध पर होते हैं। कटघरे में खड़ा हर गवाह, जो उनके मित्र ही होते हैं, अपने अनुभव सुनाने लगते हैं। आरोप लगाने लगते हैं।
इस ड्रामे का सच उस समय उभर आता है जब पता लगता है कि वाकई वह अनब्याही माँ बन चुकी है, और उसके गर्भ में एक बच्चा है। वह चाहती है कि यह बच्चा जीए, लेकिन चूँकि बच्चे का पिता एक विवाहित व्यक्ति होता है, वह एक अवैध संतान है। वह प्रयास करती है कि किसी अन्य मित्र से विवाह कर बच्चे को वैध बनाए, लेकिन वे तैयार नहीं होते। जज किरदार की पत्नी भी एक गवाह होती है, जो शिक्षिका को त्रियाचरित्र कहती है।
तमाम गवाहों के बयानात के बाद (नकली) जज यह निर्णय लेते हैं कि इस अवैध भ्रूण की हत्या करना ही समाज के लिए बेहतर संदेश है। वह एक समय तो यह भी कहते हैं कि भारत में बाल-विवाह पुनः ले आना चाहिए, ताकि ऐसी अनब्याही माँ समाज में हों ही न।
यह ऑडियो नाटक जो मैंने स्टोरीटेल पर सुना, भावपूर्ण संवादों और गंभीर दलीलों से युक्त है। जैसे-जैसे नाटक आगे बढ़ता है, समाज की परतें उभरती जाती है। अंत के पंद्रह मिनट शिक्षिका स्वयं को डिफेंड करती है, जो अद्भुत संवाद है। वह उस जीवन का महत्व समझाती है, जो उसे आत्महत्या के असफल प्रयासों के बाद मिला। वह इस भ्रूण की हत्या के आदेश को ग़लत ठहराती है, क्योंकि वह जीवन तो स्फुटित हो चुका है। अब उसकी वैधता का प्रश्न ही नहीं। मानवों का बना एक न्यायालय तो इस पर कोई निर्णय ले ही नहीं सकता।
शायद मुझे पूरी कथा नहीं कहनी चाहिए थी। इसे किताब में पढ़ा, यूट्यूब पर देखा या ऑडियो पर सुना जा सकता था। लेकिन यह कथा सुन कर भी संभव है, क्योंकि नाटक का असल आनंद तो उसका मंचन ही है। बहुतों ने देख भी रखी होगी। न देखी तो ज़रूर देखें, या सुनें।
Author Praveen Jha describes the essence of famous Marathi play Khaamosh! Adalat Zaari Hai by Vijay Tendulkar based on abortion law.
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