एक बृहत विषय पर अपेक्षाकृत संक्षिप्त पुस्तक। इसमें कोई दो राय नहीं कि लेखक का इस विषय पर विशद अध्ययन और एक ख़ास धारा में फ़ील्ड-वर्क दिखता है। यहीं एक क़िस्सा कहूँगा कि एक शीर्ष संगीतकार को पाँच मिनट के रिकॉर्डिंग के लिए बुलाया गया। वह जब वहाँ पहुँचे तो उन्हें समझ नहीं आया कि इन पाँच मिनटों में कितने आलाप लूँ, कितने तान लूँ, कितनी बंदिश गाऊँ। इस पुस्तक में भी लेखक के पास कहने और पाठकों को सौंपने के लिए इतना कुछ था, कि वह फ़िलहाल एक प्राइमर सौंप कर चले गए। लगभग ढाई सौ पृष्ठों में उन्होंने निषादों का एक खाका दे दिया है, जिसे सभी को जान लेना चाहिए।
एक बात कहूँगा कि निजी तौर पर मुझे मछुआरे बहुत ही ग्लैमरस व्यवसाय के लोग लगते हैं। यूरोपीय मछुआरों को देखा जाए तो बढ़िया आधुनिक फिशिंग बोट पर बैठे वे शान से निकलते हैं। उनकी आय ऐसी होती है कि बढ़िया घर-गाड़ी आदि होती है। केरल के रईस मछुआरों से भी मुलाक़ात हुई है। एक स्वीकारोक्ति यह भी कि मेरे अपने गाँव के मल्लाहों के पास सबसे अधिक ‘क्विक कैश’ मिल सकता है। एक क्रिटिकल समय में मुझे उनसे उधार भी मिला।
वहीं इस पुस्तक के निषाद तीन कालखंडों में विभाजित हैं। अंग्रेज़ों से पूर्व, अंग्रेज़ों के समय, और आजादी के बाद।
अंग्रेज़ों से पूर्व उनकी सामाजिक स्थिति पचमा (पंचम वर्ण) शूद्र की है। इस पर वैदिक, पौराणिक, प्राचीन अर्थशास्त्रिक, बौधायन सूत्र आदि संदर्भ हैं। लेखक लोक मान्यताओं में मोक्ष दिलाने वाले, बेड़ा पार कराने वाले, ऊपर अल्लाह-नीचे मल्लाह वाले निषादों को समाज के सबसे निचले तबके पर रखे जाने की बात रखते हैं। यहाँ एक बात जोड़ूँगा कि इस कालखंड में मौर्य-गुप्त आदि के बाद मुस्लिम शासन में मात्र शाहजहाँ काल का एक passing reference है। मुगल काल में निषादों की स्थिति आदि पर क्या डॉक्यूमेंट है, यह मिलता तो कुछ और पूर्णता आ जाती।
अंग्रेज़ों के काल में लेखक निषादों की बद से बदतर दशा इंगित करते हैं, जब उनको बाक़ायदा ‘क्रिमिनल ट्राइब’ में डाला गया और चोर-बदमाशों का पेशा कहा गया। इस पर सुधारगृहों की चर्चा तो औपनिवेशिक इतिहास में रुचि रखने वालों के लिए नया पिटारा ही है। इसके लिए लेखक को साधुवाद कि यह खंड कई रिसर्च आइडिया मन में लाता है।
अंग्रेज़ों के बाद की स्थिति और राजनीति में भूमिका आज एक महत्वपूर्ण विमर्श है। लेखक के अनुसार निषाद उत्तर प्रदेश के लगभग 25 प्रतिशत सीटों का भविष्य तय करते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ एक पेशे के रूप में मछली मारना या केवट बनना घट रहा है। गैंगस्टर पूँजीवाद, माफ़िया खनन और कॉरपोरेट क्रूज़ चलने से निषादों के हाथ कुछ नहीं आ रहा। लेखक एक स्थान पर फ़ील्ड रिसर्च के दौरान फूलन देवी को धन्यवाद देते मल्लाह से मिलते हैं, जहाँ एक ज़रूरी विमर्श है। इसी तरह ‘चौंधियार’ कौन होते हैं, यह भी जानना चाहिए।
अब लेखक से उम्मीद बनती है कि नदी पुत्रों के भविष्य को लेकर एक रोडमैप दें। देश में इतने मत्स्यपालन संस्थान हैं, लखनऊ में मत्स्य आनुवंशिकी पर संस्थान है, इंडस्ट्रियल फिश फार्मिंग का स्कोप है, निर्यात की संभावना है, गंगा नदी के स्वच्छता अभियान चल रहे हैं, तो एक पेशे की तरह इसका भविष्य कैसा दिखता है?
लेखक परिचय में इंगित किया गया है कि घुमन्तू समुदाय और एंथ्रोपोसीन पर कार्य जारी है, तो उम्मीद का दायरा बढ़ता जाता है।
Author Praveen Jha shares his experience about book Nadi Putra by Ramashankar Singh published by Setu Prakashan