स्वर, राग और ताल

मुझे किसी ने पूछा कि किन्हीं पाँच स्वरों को मिला कर क्या राग बन जाएगा? यूँ गणित से राग नहीं बनता। जैसे किसी भी चार अक्षर मिला कर शब्द नहीं बनाया जा सकता। उस शब्द का कोई अर्थ तो हो कि शब्द बोलते ही एक ख़ास चीज ध्यान आए। ‘अमरूद’ कहें तो एक फल ध्यान आए

जो मन में रंग भर दे, वही है राग।

– एक संस्कृत कहावत

इस व्याख्या से पहले यह ध्यान दिला दूँ कि यह लेख श्रोता रूप में है। गायकी या वादन के लिए नहीं। लेकिन श्रोता को स्वर का साधारण ज्ञान होना ही चाहिए। सप्त स्वर हैं- षडज (सा), ऋषभ (रे), गंधार (ग), मध्यम (म), पंचम (प), धैवत (ध), और निषाद (नि)। कहा जाता है कि ‘सा’ मोर की आवाज है, ‘रे’ बैल की; ‘ग’ बकरी की ध्वनि है, ‘म’ कबूतर की; ‘प’ कोयल की कूक है, ‘ध’ घोड़े की आवाज और ‘नि’ हाथी की चिंघार।

इनमें षडज (सा) और पंचम (प) अपनी जगह पर अड़े रहते हैं। वे ‘अचल स्वर’ कहलाते हैं। यहाँ अड़े रहने का यह मतलब नहीं कि ‘सा’ को एक ही स्केल पर गाया जा सकता है। आप स्केल बदल सकते हैं। हर गायक का अपना ‘सा’ होता है। लेकिन उस ख़ास स्केल के षडज (सा) और पंचम (प) नहीं बदलेंगे। रे, ग, म, ध, नि को विकृत किया जा सकता है, और इसलिए वे ‘विकृत स्वर’ कहलाते हैं। रे, ग, ध, नि के शुद्ध और कोमल स्वर होते हैं, तीव्र नहीं होते। मध्यम (म) का शुद्ध और तीव्र स्वर होता है, कोमल नहीं होता। इसी तरह से बने सप्तक (सा रे ग म प ध नि सा) भी तीन स्केल पर होते हैं- मंद्र सप्तक, मध्य सप्तक और सबसे ऊँचे स्केल पर होता है- तार सप्तक। कभी किसी हारमोनियम या पियानो के दाहिने से बायें तरफ उंगलियाँ फिरा लें, आप यह सीढ़ीयाँ चढ़ते जाएँगे। मंद्र से तार तक।

यह श्रोता के लिए समझना क्यों जरूरी है, इसकी बात आगे करूँगा। यह तो संगीत के अक्षर हैं। अक्षरों के बिना संगीत की बात कैसे संभव है?

अब इन स्वरों से ही राग बनेंगे। मुझे किसी ने पूछा कि किन्हीं पाँच स्वरों को मिला कर क्या राग बन जाएगा? यूँ गणित से राग नहीं बनता। जैसे किसी भी चार अक्षर मिला कर शब्द नहीं बनाया जा सकता। उस शब्द का कोई अर्थ तो हो कि शब्द बोलते ही एक ख़ास चीज ध्यान आए। ‘अमरूद’ कहें तो एक फल ध्यान आए। ठीक वैसे ही राग एक ख़ास भाव लिए होती है। और उस भाव को लाने के लिए भी राग एक तरीके से ही गायी जाती है। बस स्वर मिला कर गाने से बात नहीं बनेगी। हर राग का एक स्वर मुख्य होगा जो ‘वादी’ कहलाएगा। और उसका असिस्टेंट (सहायक) ‘सम्वादी’ कहलाएगा। हालांकि अब इतना वादी-सम्वादी बनाकर संगीतकार भी नहीं चलते। लेकिन कम से कम एक मुख्य स्वर ‘वादी’ तो होता ही है, सम्वादी हो न हो। संगीतकार इस ख़ास स्वर पर बहुत जोर देते हैं, बारम्बार उस स्वर पर आते हैं, या वहीं जाकर रूक जाते हैं। ‘वादी’ को राग में संगीतकार कभी नहीं छोड़ते, पकड़ कर रखते हैं। वादी छूटा, राग हाथ से निकल गया।

हर राग किसी न किसी थाट पर आधारित होगा। ‘थाट’ एक स्वरों का खाका है। एक तरह का कॉम्बिनेशन। जैसे बिलावल थाट में सातों शुद्ध स्वर होते हैं, बाकियों में कोई कोमल तो कोई तीव्र होता है। हर राग की एक जाति भी होगी। जैसे- राग में सभी सात स्वर हुए तो ‘सम्पूर्ण’, छह हुए तो ‘षाडव’, पाँच हुए तो ‘औडव’। इसी तरह, राग में नीचे से ऊपर ‘आरोह’ होगा, और ऊपर से नीचे ‘अवरोह’। और हर राग का एक चलन (पकड़) होगा, जिसमें राग अमूमन गाया जाता है। यानी स्वरों के कॉम्बिनेशन को एक ख़ास तरह से सजा कर पेश करना। राग की गति भी होती है, और स्वरमान (पिच) भी होता है। जैसे, विलम्बित (धीमी) से द्रुत (तेज) तक गति बदलती है।

और भी बारीक बातें हैं। रागों के स्वर-समूह में उन स्वरों को बरतने का ख़ास तरीका होता है और यह राग का चलन कहलाता है। अत: एक ही स्वर अलग-अलग रागों में अलग सुनाई दे सकता है। दरबारी का कोमल गांधार (ग) और तोड़ी का कोमल गांधार एक सा नहीं। दोनों सुनने में भिन्न है अगर गायक ठीक से गा रहे हैं। यह बात पाश्चात्य संगीत में समझाना कठिन है कि एक ही स्वर दो रागों में अलग-अलग क्यों सुनाई देते हैं? जब गाए अलग जाते हैं, भाव अलग है, समय अलग है, और साथ के स्वर अलग हैं, तो मूल स्वर भी बदल गया। अब मैं भारत में और नॉर्वे में भिन्न ढंग से रहता हूँ, भिन्न दिखता भी हूँ। जबकि हूँ मैं ही। आब-ओ-हवा से जैसे हम बदल गए, राग भी बदल जाता है।

गायकी (और वादन) के दो महत्वपूर्ण अंग है- लय और ताल। संगीत सुनते समय ताल पर ध्यान जाए ही, यह जरूरी नहीं। बल्कि श्रोता रूप में मुझे सबसे कठिनाई यही समझने में हुई कि ताल क्या है? यह संगीत का लय है, जो धीमा-तेज होता रहता है, पर हम समझ नहीं पाते। जैसे दिल की धड़कन हम सुन नहीं पाते, लेकिन जब हम क्रोधित होते हैं तो यह तेज हो जाता है। यह संगीत के नेपथ्य में चल रही वही गिनती है जो रूक गयी तो संगीत रूक जाएगी। हाथ या पैरों के थाप देकर विश्व के अलग-अलग संगीतकार यह गिनती करते हैं, या मन में गिनती करते हैं।

यह गिनती जब तबला के थाप पर गीत के साथ होती है, तो उसे ‘ठेका’ कहते हैं। जैसे तीनताल में तबले पर बजता है

“धा धिन धिन धा

धा धिन धिन धा

धा तिन तिन ता

ता धिन धिन धा”

अब इसमें पहली मात्रा ‘धा’ को ‘सम’ कहा जाता है, जहाँ सबसे अधिक जोर है। गायकी के समय यह सम पकड़ना तबला-वादक की मुख्य चुनौती है। कि कहाँ से मात्रा शुरू करनी है। गिनती के लिए पहली मात्रा ‘धा’ और पाँचवी मात्रा ‘धा’ पर ताली बजती है। फिर नौवीं ‘धा’ पर खाली, और तेरहवीं ‘ता’ पर ताली। एक बार बोलते हुए बजा कर देख लीजिए, यही लय है।

अब इन सोलह मात्राओं से संगीत की लय पता लगती है। अगर इस एक चक्र में कोई एक बार आरोह-अवरोह (सारेगमपधनिसां-सांनिधपमगरसा) गा ले तो यह बराबर की लय है। अगर दो बार गा ले तो यह ‘दोगुण’ है। चार बार गा ले तो ‘चौगुण’ है। गति ऐसे ही बढ़ती है।

तीनताल और एकताल ही सबसे लोकप्रिय ताल है, जो विलंबित से द्रुत तक, सब में चल रहे हैं। विलंबित या अति-विलंबित लय में तिलवाड़ा और झूमरा ताल अब कम सुनने को मिलते हैं। रूपक ताल का उपयोग भी घट रहा है। ताल मात्राओं (बीट्स) से ही बनी होती है, और लय भी उस पर ही निर्भर करता है। ‘ताल’ को ही मुख्य अंग माना जाए। ताल देते वक्त ताली भी बजती है, और खाली भी जाता है। जैसे- आप किसी समय कुछ कर रहे होते हैं, कभी कुछ नहीं कर रहे होते, लेकिन समय तो नहीं रुकता। वह तो चलता रहता है। संगीत में भी यही मामला है। ताली बजे न बजे, मात्रा चलती रहेगी। अब यहीं अगर ताली जल्दी-जल्दी बजे तो हम तेज लय यानी द्रुत में आ गए, अधिक अंतराल पर बजे तो हम विलंबित में आ गए। सब समय का खेल है, और यह गिनती संगीतकार के मन में चल रही होती है, जिसे दोगुन (दोगुनी गति), तिगुन, चौगुन कहते हैं।

राग का एक हिस्सा गीतबद्ध होता है। जैसे अगर बच्चा पूछे कि इन स्वरों से आखिर करेंगे क्या? तो उन स्वरों को सजा कर हम गीत सुनाते हैं। गीत जिनका कुछ शाब्दिक अर्थ निकले। ऐसी बंदिशें हर घराने के किसी व्यक्ति ने बनायी। घरानों से इतर भी बने। मीरा के पद भी बंदिशों में सजा कर गाए गए। संत तुकाराम के भी। फ़िल्मी बंदिशें भी बनीं। बंदिश राग का मूड भी समेटता है, लय भी और राग के सभी गुण भी। इसलिए बनाना आसान नहीं। अब ‘न बनाओ बतियाँ, हटो काहे को झूठी’ कितनी लोकप्रिय बंदिश है, लेकिन इसे रचना आसान न होगा। रच कर राग पर बिठाना। लोग एक घराने से दूसरे घराने यही बंदिश या चीज सीखने जाते। बड़ी मेहनत से वह चीज मिलती। यह संगीतकार की अपनी संपत्ति थी, जिसे यूँ ही नहीं बाँट देते।

बंदिश को वादन में ‘गत’ कहते हैं। वहाँ गीत तो नहीं गाया जाता, लेकिन गीत बजता है और इसलिए ‘गत’ कहलाता है। बंदिश के दो हिस्से हैं- एक स्थायी और दूसरा अंतरा। स्थायी का ही पहला वाक्य ‘मुखड़ा’ कहलाता है जो बारंबार गाया जाता है। उसके बाद का हिस्सा मांझा (मझला से) कहलाता है, और अंतरे का अंत होता है ‘आमद’ से, जहाँ से गायक वापस मुखड़े पर आते हैं। ध्रुपद बंदिश में दो और हिस्से होते हैं- संचारी और अभोग।

अब आते हैं तराना पर। कहते हैं अलाउद्दीन ख़िलजी जब देवगिरी (दौलताबाद, औरंगाबाद) पहुँचे तो वहाँ के राजगायक गोपाल नायक ने छह रात तक राग कदम्बक सुनाया। ख़िलजी ने अमीर ख़ुसरो को कहा कि यह याद कर लो, मुझे दिल्ली पहुँच कर सुनाना। अमीर ख़ुसरो ने याद तो कर लिया, पर बंदिश न याद रही तो उसकी जगह ‘ता ना दे रे ना..’ गाने लगे, और यूँ जन्मा ‘तराना’। हालांकि उस्ताद अमीर ख़ान इस बात से इन्कार करते रहे कि तराना का मतलब नहीं होता। वह अपने तरानों का अर्थ अक्सर बताते रहे। मेरा एक और कयास यह है कि तराना कार्नाटिक संगीत से आया, क्योंकि उनकी गायकी ‘ताना दे रे ना’ से ही गायी जाती है। मैं अक्सर कई रागों के तराना काट कर रख लेता हूँ। यह दो-चार मिनट की कुंजी तब काम आती है, जब वक्त कम हो। वैसे भी उस्ताद अब्दुल करीम ख़ान जैसों का अक्सर तराना ही उपलब्ध हो पाता है। अगर आप एक नाम पूछेंगे, जिनके तराना मैं सबसे अधिक सुनता हूँ तो वह हैं- उस्ताद निसार हुसैन ख़ान (रामपुर सहसवान)।

हर राग को गाने का एक वक्त भी होता है। कुछ राग सुबह, कुछ दोपहर/दिन में, कुछ शाम, कुछ रात और कुछ रात और सुबह के बीच गायी जाती है। मैं प्रहरों में बाँट कर भारी-भरकम बात नहीं करूँगा। लेकिन सुगम संगीत में भी कोई फ़िल्मी गीत सुबह अच्छी लगती है, तो कोई शाम। अब रात के डेढ़ बजे हों, आधी नींद में हों, तो आप कौन सा स्वर सुनना चाहेंगे? जाहिर है कि ऊँचे स्वर शायद न भाएँ। इसलिए इन रागों का ‘वादी’ स्वर षडज (सा), ऋषभ (रे), या गांधार (ग) होता है। जैसे-जैसे सुबह, दोपहर और शाम होती जाती है, हम ऊपर चढ़ते जाते हैं। पंचम (प), धैवत (ध) और निषाद (नी) तक जाते हैं। ‘सा’ में शांति है, तो ‘रे’ में कठोरता है, और ‘नि’ में विषाद/दु:ख है। इसलिए, इनका समय भिन्न है। यह नियम पक्का नहीं है, पर स्थूल तौर पर यह नियम ठीक-ठाक है। अक्सर महफ़िलें शाम को ही जमती हैं तो सुबह के राग शाम को भी गाए जाते हैं, और कर्णप्रिय ही होते हैं। मैं फिर भी कहूँगा कि रागों की समयावली नोट कर घर में टाँग लें। और उसी विधि से सुनें। जब यह समयावली बनी है, तो यूँ ही नहीं बनी होगी।

तो जैसा मैंने लिखा है, दिन के राग अक्सर उत्तरांग प्रधान राग होते हैं, यानी इनके वादी स्वर ‘प’, ‘ध’, ‘नि’ अथवा ‘सां’ होते हैं। यानी गायक/वादक अक्सर ऊँचे स्वरों पर रुकते हैं, या अधिक प्रयोग करते हैं। इसमें कुछ महत्वपूर्ण अपवाद हैं, जैसे भैरवि, बसंत, भीमपलासी, मालगुंजी और भटियार का वादी स्वर मध्यम (म) है। वृंदावनी सारंग, शुद्ध सारंग, मारवा और राग श्री के वादी स्वर ऋषभ (रे) हैं; पीलू, पुरिया, पुर्वी और गौड़ सारंग का वादी स्वर गंधार (ग) है।

ब्रह्म काल

3-6 बजे- हिंदोल, हिंदोल बहार, ललित, बसंत, भटियार, जयंत, कलिंगड़ा

प्रातः काल

6-9 बजे – भैरव (सभी रूप), भैरवि, बिलावल, तोड़ी (लगभग सभी रूप), बिभास, अहीरी, आनंद लीला, अरज, भैरव बहार, गिरिजा

9 -12 बजे – देसी, चारूकेशी, जौनपुरी, मालगुंजी, आसावरी, बरवा

दोपहर

12-3 बजे – सारंग (गौड़, शुद्ध, वृंदावनी)

3-6 बजे – भीमपलासी, पुरिया कल्याण, पुरिया, श्री, लतिका, मारवा, मारू बिहाग, मुल्तानी, पीलू, पूर्वी

रात के राग पूर्वांग प्रधान होते हैं, यानी ‘सा’, ‘रे’, ‘ग’ अथवा ‘म’ वादी स्वर होते हैं। इसका अर्थ है कि गायक/वादक निचले स्वरों का अधिक प्रयोग करते हैं। इसके कुछ अपवाद हैं। जैसे राग काफी, शिवरंजिनी, कलावती और छायानट का वादी स्वर पंचम (प) है। राग हमीर का वादी स्वर धैवत (ध) है।

सायं

6-9 बजे – कल्याण (पुरिया कल्याण के अलावा सभी रूप), यमन, जयजयवंती, तिलक कामोद, धनश्री, हंसध्वनि, सुहा, सुघरइ, पहाड़ी, तिलंग, गौरी, अमृत वर्षिणी, केदार बहार, भूप, चंपक, काफी, मनोहर, रेवा

रात्रि

9-12 बजे – दुर्गा, झिंझोटी, कनड़ा (लगभग सभी रूप), केदार, बिहाग, हमीर, हेमंत, चंद्रकौस, छायानट, कलावती, अासा, बागेश्री बहार, कनड़ा बहार, दीपक, नंद, नारायणी, रागेश्री, शंकरा, शिवरंजिनी

देर रात

12-3 बजे – मालकौस, देस, अदाना, जोग, बहार, बसंत बहार, भवानी

मॉनसून– मेघ, मल्हार, किरवानी, सिंदूरा

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