आम लोगों के लिए हिंदुस्तानी संगीत सुनने की शुरुआत अक्सर जबरदस्ती ही होती है। यह ‘कल्ट’ बनाने वाला मामला होता है कि एक को पसंद है, तो दूसरे को भी खींच लाया। जब अमरीका में ‘स्पिक-मकै’ की शुरुआत विद्यार्थियों के मध्य हुई तो बड़ी मुश्किल से चार लोग पकड़ कर लाए गए थे। मेरे आने तक तो फिर भी तीस-चालीस लोग पहुँच ही जाते थे। समझ किसी को ख़ास थी नहीं; लेकिन लगता कि जब पढ़-लिख कर कुछ बड़ा शोध करने अमरीका पहुँच गए तो भला संगीत ऐसा क्या रॉकेट साइंस होगा? चार राग सुन लो, सब स्पष्ट हो जाएगा। कुछ को यह ‘कॉम्प्लेक्स’ भी होता कि फलाँ समझता है, सुनते हुए हाथ से अपनी जींस पर थाप देता है, गुनगुनाता है, और हमें कुछ हवा ही नहीं लगती। तो छुप कर कमरे में बंद होकर हेडफ़ोन लगाए सुनते कि शायद आज समझ आ जाए। इसी जद्दो-जहद में एक गुणी मित्र ने पहली बार उन्हें सुनवाया।
पहले पाँच मिनट कुछ अजीब सी ध्वनियाँ सुनाई देती रही, जिनका कुछ अर्थ ही नहीं। जब दस मिनट निकल गए तो धैर्य जाता रहा कि मुझसे न हो पाएगा। फिर मित्र ने कहा कि पखावज की थाप का इंतजार करो। अब एक लक्ष्य मिल गया, तो इंतजार करने लगा। धीरे-धीरे मालूम पड़ा कि ध्वनि बदल रही है। एक नहीं, दो लोग गा रहे हैं। और यह सब बड़ी सफाई से हो रहा है, जैसे हॉकी के बॉल पास हो रहे हों। एक स्वर की ऊँचाई तक ले जाता है, दूसरा उसे बड़ी सावधानी से बचते-बचाते आगे ले जाता है, और मौका देख कर फिर से पहले को पकड़ाता है। यह तो कमाल का खेल है! और जैसे ही पखावज की ध्वनि सुनाई दी, लगा कि रणभेरी बज गयी है।
मित्र ने उत्साहित होकर कहा, “धमार!”
अब उस वक्त अर्थ मालूम न था, लेकिन मेरे दिमाग में भी मिलता-जुलता ही शब्द था। यह वाकई धमाल था। वे अब गाने लगे थे,
“झीनी झीssनी झीनी झीssनी बीनी चदरिया,
काहै के ताना, काहै के भरनी।
कउन तार से बीनी चदरिया,
इंग्ला पिंग्ला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया
आठ कंवल दल चरखा डोले
पाँच तत्व गुन तीनी चदरिया।”
इसके बाद अगले कई दिन बस दिमाग में यही चलता रहा। प्रयोगशाला में प्रयोग करते, कॉफी पीते, टहलते, यहाँ तक कि स्क्वाश का खेल खेलते भी ‘झीनी चदरिया’।
यह कबीर का भजन है। और जो गायन-वादन कर रहे थे- वे थे तीन भाई। उमाकांत, रमाकांत और अखिलेश गुंडेचा। और इन तीनों भाइयों का परिवार हमारे-आपके जैसा परिवार है। ये किसी संगीत घराने या खानदानी ध्रुपद-बानी से नहीं थे। यूँ कहिए कि ये संगीत के जनतंत्र की पहली पौध में से थे। संगीत का जनतंत्र!
पहले संगीत एक खानदानी संपत्ति थी। लेकिन जब राजा-महाराजा गए, तो घराने बिखरने लगे। तानसेन-बैजू बावरा का ध्रुपद तो लुप्त-प्राय होने लगा। खयाल गायकी ही मंचों की शोभा बनती। ऐसे समय में डागर परिवार ने भोपाल में ध्रुपद संस्थान के माध्यम से नयी शुरुआत की। उन्होंने अपना संगीत सबके लिए खोल दिया। उसी मध्य जिया फरीदुद्दीन और मोहिउद्दीन डागर साहब की कक्षा में सरकारी छात्रवृत्ति के साथ चुने गए गुंडेचा बंधु। और इस तरह न सिर्फ परिवार बल्कि धर्म के बंधन को तोड़ कर संगीत का जनतंत्र स्थापित हुआ। लेकिन, जैसे राजनैतिक जनतंत्र खिचड़ी बन कर रह जाती है, संगीत में भी सबके पास ज्ञान नहीं पहुँच पाता। ध्रुपद संस्थान में कई लोग आए-गए, बाद में गुंडेचा बंधुओं ने भी कई छात्रों को सिखाया, लेकिन ध्रुपद तो कठिन साधना है।
पुलुस्कर जी ने एक बार कहा था, “जब तानसेन स्वयं दूसरा तानसेन न पैदा कर सके, तो मैं कहाँ से दूसरा पुलुस्कर पैदा करूँ?”
लेकिन डागर परिवार ने कम से कम एक अपने जैसी जोड़ी दुनिया को दे दी।
जब मैंने उमाकांत जी और रमाकांत जी को पहली बार देखा, तो वे अपने ट्रेडमार्क तसर सिल्क के कुर्ते और नेहरू जैकेट में थे। उमाकांत जी दो ही साल बड़े थे, लेकिन एक-एक बाल सफेद। और छोटे गुंडेचा यानी रमाकांत जी के काले घने बाल। दोनों की चाल-ढाल से भी लगता कि एक पीढ़ी का फर्क है। रमाकांत जी मंच पर भी नए जमाने के ‘टेक्नो-फ्रीक’ व्यक्ति नजर आते। आइ-पैड पर तानपुरा का ऐप्प सेट करते। उमाकांत जी को ख़ास समझ नहीं आता, ऐसा लगता था। यह रमाकांत जी का विभाग था।
इन दोनों के हाव-भाव से यह लगता कि ये बड़ी बारीकी से श्रोताओं पर ग़ौर कर रहे हैं। ध्रुपद गायकी को अगर खयाल गायकी के बराबर जनप्रिय बनाना है, तो यह बहुत जरूरी है कि श्रोताओं को जोड़ लिया जाए। और यहीं कहीं कबीर फिट होते हैं। यह प्रयोग आज तक किसी ने ध्रुपद के साथ कम ही किया था; हालांकि दरभंगा घराने में निर्गुण, विद्यापति, भजन गाए जाते रहे लेकिन फिर भी ध्रुपद गायक संस्कृत-निष्ठ पद ही अधिक गाते। कबीर, मीरा के पदों को गाना दुर्लभ था। स्वयं तानसेन ने समकालीन तुलसीदास के पद नहीं गाए। और गुंडेचा बंधुओं ने छायावादी कवियों को भी पक्के ध्रुपद शैली में गाया। यह समय की नब्ज पकड़ना सबके बस की बात नहीं। और कहीं न कहीं लगता है कि इस प्रयोगधर्मिता में उस आइ-पैड हाथ में लिए रणनीति बनाते रमाकांत जी की भूमिका होगी। उमाकांत जी की सात्त्विकता और रमाकांत जी के नित नए प्रयोगों से ही यह जमीन तैयार हुई होगी।
एक और बात सुनी थी। किसी बड़े जलसे में रमाकांत जी बैकस्टेज अक्सर पूछते, “कौन-कौन से राग गाए गए? अच्छा! बिहाग हो गया, तो हम चारुकेशी गाएँगे।”
कई जलसों में एक ही राग सभी गाते चले जाते हैं, और श्रोता पक जाते हैं। रमाकांत जी इस बात को बखूबी समझते थे कि अब वह जमाना गया कि पहले से सोचा-समझा राग जाकर गा दें। अब तो पिच की हालत देख कर बैटिंग करने उतरना होता है।
और सबसे बड़ी बात। उन्हें यह भी समझ आ गया था कि अधिकतर श्रोताओं को संगीत की रत्ती भर समझ नहीं। कुछ अभिजात्य परिवार से यूँ ही सज-धज कर आगे की कुर्सियों पर बैठे हैं, कुछ शौक से आए हैं, कुछ यूँ ही पकड़ कर लाए गए हैं, और कुछ बस आ गए। अब इस भीड़ के सामने क्लिष्टतम संगीत गाना है, तो भला क्या जुगत लगायी जाए? वे पालथी मार कर बैठ जाते, सबकी आँखों से आँखे मिलाते, जाँघ पर थाप देते, हाथों पर थाप देते, हस्त-मुद्राओं से, अपनी भौं और मस्तक की भंगिमाओं से संपर्क बनाए रखते। मजाल है कि कोई सो जाए। धीरे-धीरे लोगों को समझ आने लगता कि यह गमक नाभि से निकल कर आ रही है, यह गले से, यह हृदय से। वे गाते हुए इशारों से यह समझाते चलते कि देखो स्वर को कहाँ से उठाया और कहाँ निकाल कर रख दिया।
जब रमाकांत जी के असमय देहांत की खबर मिली, मेरे मन में उनके संगीत जाने से अधिक उनके मानस के जाने का दु:ख हुआ। संगीत तो डब्बों में बंद मिल जाएगा, लेकिन वह वैज्ञानिक कहाँ मिलेगा? आज जब संगीत नयी पीढ़ी से छूटता जा रहा है, तो ऐसे व्यक्ति की जरूरत महसूस होती है जो सुलभता से समझाए। उनकी तरह किताब लिख कर, पढ़ा कर, विद्यार्थियों के मध्य जाकर प्रसार करे। सोशल मीडिया में भी उनकी सक्रियता गज़ब की थी। गुंडेचा बंधु का संगीत यथासंभव ऑनलाइन लाइव होता। यू-ट्यूब पर सैकड़ों रिकॉर्डिंग मिल जाएगी। जहाँ लोग दिल्ली-बंबई-कलकत्ता में संगीत की जमीन ढूँढ रहे हैं, वे देश के केंद्र भोपाल से शंखनाद करते। उनके संस्थान में दक्षिण भारत से, और भिन्न-भिन्न देशों से लोग आते। कभी कहा जाता कि ध्रुपद की खरज महिलाओं के बस की नहीं, वहीं गुंडेचा जी ने कई महिलाओं को ध्रुपद सिखा दिया। और-तो-और पाकिस्तान को पहली महिला ध्रुपद गायिका गुंडेचा बंधु ने ही दी, और वह भी एक नेत्रहीन महिला! सभी भ्रांतियाँ, सभी पूर्वाग्रह, सभी रूढ़ मापदंड तोड़ कर एक नयी स्थापना, एक नव मार्गी संगीत का सृजन किया।
अब उन ध्वनियों में एक ध्वनि ही मौजूद रहेगी। लेकिन उमाकांत जी को ही कभी कहते सुना था कि हम तीनों भाइयों का भिन्न स्वरूप नहीं है, हम एक ही ध्वनि, एक ही संगीत हैं। रमाकांत जी की ऊर्जा हमारे मध्य सदैव रहेगी। जो चादर उन्होंने बड़े जतन से ओढ़ी थी, ज्यों की त्यों धर कर चले गए। रमाकांत जी की ध्वनि स्पष्ट मन में गूँज रही है—
“दास कबीर जतन कर ओढ़े, ज्यों की त्यों धर दीनी चदरिया। झीनी चदरिया।”
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1 comment
behatreen… स्वयं तानसेन ने समकालीन तुलसीदास के पद नहीं गाए। yah kaun se Tulsidaas hain? Ramcharit wale to nahin honge….