यूरोप में सरकारी संगीत विद्यालय की परंपरा ही चल रही है। अधिकतर बच्चे वायलिन, गिटार, फ्ल्यूट, सैक्सोफोन, ड्रम या पियानो चुनते हैं। कुछेक बच्चे ही हार्प या बड़ा ज़ाइलोफ़ोन चुनते हैं, क्योंकि उनको ढोना मुश्किल होता है।
जब भारत का पहला हिंदुस्तानी संगीत का ऑर्केस्ट्रा बैन्ड बाबा (अलाउद्दीन ख़ान) ने मैहर में बनाया, तो उन्होंने सितार, सरोद, बैन्जो (या सितार-बैन्जो), वायलिन, ढोल, तबला और इन सबके केंद्र में जल-तरंग रखा। अब जल-तरंग की सभी चीनी मिट्टी की कटोरियाँ लेकर बीच में झुर्रेलाल जी बैठते। लेकिन, मुश्किल यह आ गयी कि जल-तरंग की आवाज़ तो मंच से दूर तक जाती ही नहीं। उस समय संगीतकार माइक-लाउडस्पीकर लेकर बैठते नहीं थे। लाउडस्पीकर तो खैर था भी नहीं। माइक भी बस रिकॉर्डिंग स्टूडियो वग़ैरा में ही। आपको दमदार गाना-बजाना होगा, तभी पीछे तक आवाज़ जाएगी। जल-तरंग अगर जोर लगा कर बजाए तो कटोरी ही टूट जाएगी। यह तो नाजुक चीज है।
एक दिन बाबा मैहर के राजा साहब के पास बैठे थे। वह शिकार के लिए बंदूकों की नली साफ करवा रहे थे। कई बंदूकों में जंग लग गयी थी, उसे किनारे रखवा देते।
बाबा ने कहा, “महाराज! इन बंदूक की नलियों को आप मुझे दे दें।”
और इन्हीं जंग लगी पुरानी बंदूक की नलियों से उन्होंने तैयार किया ‘नल-तरंग’। इसे अलग-अलग अनुपात में काट कर यह देशी ज़ाइलोफ़ोन तैयार हुआ। मेरा अंदाज़ा है कि बाबा ने शायद यूरोप यात्रा में या कलकत्ता में देखा होगा, और उनको यह आइडिया आ गया। हो सकता है, यूँ भी आ गया हो। बाबा के भाई आयत ख़ान साहब और खुद बाबा भी नित नए साज बनाते ही रहते थे।
यह नल-तरंग ही मैहर बैन्ड का मुख्य यंत्र बना। यह केंद्र में रहता, और सितार, सरोद, वायलिन आदि इसके पीछे बजते रहते। अभी भी यही परंपरा चल रही है। झुर्रेलाल जी के देहांत के बाद शैलेंद्र शर्मा जी ने यह जिम्मेदारी ली, और वहीं के एक युवक (नाम ध्यान नहीं) भी बजाते हैं। लेकिन, बस मैहर में ही यह नल-तरंग बजता है। और कहीं नहीं। वहाँ भी बस आखिरी साँसें ही ले रहा है।
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