Translation of an article originally written in Marathi by P L Deshpande (पु. ल.) Translated by Praveen Jha
“संगीत की दुनिया में कोई कष्ट नहीं, मात्र सुख है”
पंडित मल्लिकार्जुन मंसूर ने कभी कहा था।
जो भी इन महान ख़याल गायक को जानते हैं, एक ऐसे व्यक्ति को जिसके लिए संगीत ही धर्म था; यह बात अटल सत्य नज़र आएगी।
मल्लिकार्जुन मंसूर ऐसे व्यक्ति है जिनका निवास-स्थान संगीत है। उनका डाक पता ‘मृत्युंजय बंगला, धाड़वाड़’ है, लेकिन वह रहते संगीत की दुनिया में ही हैं।
प्रातः काल में वह तोड़ी-आसावरी में रहते हैं। दोपहर वह सारंग की छाया में बिताते हैं। शाम को वह पूरिया-मारवा की छाँव में रहते हैं, और उनकी रात यमन-भूप-बागेश्री के महलों में बीतती है।
अन्ना एक गृहस्थ भी हैं, जो अपनी पत्नी, पाँच-छह ब्याही-अनब्याही बेटियों, एक बेटा-बहू, और पोतों को सम्भालते हैं। उन्होंने अपनी जमा-पूँजी से धाड़वाड़ में एक छोटा सा घर बनाया है। लेकिन वह मल्लिकार्जुन मंसूर एक पिता, एक पति आदि हैं। उस पतली सी काया में एक और मल्लिकार्जुन बसता है। वह मूलतः संगीत में जीता है।
वह वहाँ आठ-नौ वर्ष की अवस्था से लेकर आज 61 वर्ष की अवस्था तक रह रहा है। इस संगीत के लिए किसी भव्य भवन की आवश्यकता नहीं है। इस के लिए किसी संगीत के मठाधीश का आमंत्रण भी आवश्यक नहीं। किसी हारमोनियम या तबले की ज़रूरत नहीं। किसी दर्शक की भी नहीं। किसी को संगीत सुनने की ज़रूरत नहीं, वे इसे उनकी आँखों में महसूस कर सकते हैं।
अन्ना जब अपने दोस्तों से बात कर रहे होते हैं, उनकी तरफ़ देख रहे होते हैं, लेकिन उनका ध्यान जैसे हर वक्त कहीं और रहता है। वह किसी को न ठीक से देख रहे होते हैं, ना सुन रहे होते हैं। वह कहीं खोए रहते हैं। उनकी आँखें किसी राग के स्वरों को देख रही होती है। वह चमक उठती है, जब कोई भूली-बिसरी ‘चीज’ याद आ जाती है, या फिर कोई दूसरा स्वरों की दुनिया का यात्री मिल जाता है।
वह बात-चीत के मध्य वास्तविक दुनिया से संगीत की दुनिया की सैर पर ले जाते हैं, और कहते हैं, “यह बंदिश सुनिए!”
उसके बाद घड़ी की सुई रुक जाती है। आस-पास के दुनिया कहीं विलीन हो जाती है, और बचती है मात्रा स्वरों की लीला!
मैं उनका संगीत 35-36 वर्षों से सुन रहा हूँ, लेकिन आज भी मैं उनके सानिध्य और संगीत का भूखा हूँ। बचपन से मुझमें संगीत से यह आसक्ति रही है। स्कूल के समय से मैं और मेरे मित्र शरु रेडकर अन्ना की महफ़िल की बैठक के किनारे बैठे रहते।
अगर आपको मंदिर का प्रसाद चाहिए, तो आपको पंक्ति में आगे खड़े होने का, केहुनी मार कर पुरोहित तक पहुँचने का हुनर सीखना होगा। किसी को बुरा लगे तो लगे। आपको संगीतकार के क़रीब पहुँचने के नुस्ख़े सीखने पड़ेंगे।
अगर किसी ने संगीतकार के ताँगे से उतरते ही उसका तानपुरा सम्भाल कर, बैठक की अगली पंक्ति पर क़ब्ज़ा करना नहीं सीखा, तो उसने महफ़िलों के समुद्र में पहली डुबकी लेनी ही नहीं सीखी। मैंने कईं गायकों के लिए इस तरह के कार्य किए हैं, और संगीत के सेवा की है। ख़ास कर, अन्ना की मैंने बहुत सेवा की है। मैंने तो उनके साथ हारमोनियम के संगत देकर उनके धैर्य की परीक्षा भी ली है।
तानपुरा ढो कर ले जाने का एक और कारण है। तानपुरा को ट्यून करते हुए सुनने में असीम आनंद है। मैं क्रोधित हो जाता हूँ, अगर कोई पूछता है कि स्टेज पर तानपुरा क्यों ट्यून किया जा रहा है। तानपुरा को ट्यून करते हुए सुनना, जैसे किसी सुंदरी को शृंगार करते हुए देखना। तानपुरा के तार जब जवारी पर ट्यून होते हैं, तो लगता है जैसे कोई स्त्री अपने कानों में मोती लगा रही हो। गायक के पहले स्वर की प्रतीक्षा से वातावरण भर जाता है।
जिस तरह एक सुंदरी के मुड़ कर मुस्कुराने की प्रतीक्षा होती है, वैसी ही ‘षडज’ से पहली मुलाक़ात की। उस पहले षडज में हमें जीतने की उतनी ही शक्ति होती है, जितनी एक सुंदरी के मुस्कान की। मेरे मित्र रामू भैया दाते बेगम अख़्तर को सुनने गए थे। जैसे ही पहला षडज कानों में पड़ा, वह उत्साहित हो गए और कहा, “मुझे आज सम्पूर्ण संगीत इस एक स्वर में मिल गया!”
वह इस स्वर के आग़ोश में ही खोए रहे। उसके बाद के संगीत के लिए उनके पास शब्द ही नहीं बचे थे। अब जो बच गया था, उन पर क़र्ज़ बन कर रह गया।
मल्लिकार्जुन मंसूर ऐसे गायक हैं जो आपको एक स्वर से ऐसे क़र्ज़ के बोझ में डाल सकते हैं। यह मेरा भाग्य है की पिछले 35-36 सालों से मैं उनके षडज को तानपुरा के षडज से मिलता देख रहा हूँ। यह षडज उनके हृदय की वीणा में हर वक्त बजता रहता है। बल्कि, इस वीणा का नाम ही मल्लिकार्जुन मंसूर है।
इस महफ़िल में और कुछ नहीं चाहिए। जब-जब मैं इस संगीत के विषय में सोचता हूँ, यही ख़याल आता है कि मल्लिकार्जन तो बसते ही संगीत में हैं। उनकी और कोई परिभाषा नहीं। कई साल पहले की एक कहानी सुनता हूँ, जब बम्बई में एक आना में चावल, छांछ और पापड़ की एक थाली मिलती थी।
अन्ना (मल्लिकार्जुन) के एक दोस्त ताईकर मुंबई के झावबची वाड़ी की संकरी गलियों के एक चाव्ल में रहते थे। ताईकर ब्रह्मचारी थे और एक आठ-बट्टा-आठ की कोठली में रहते थे। अगर कोई बैठक होती, तो बस इतनी जगह थी की (मल्लिकार्जुन) बुवा, दो तानपुरा वादक, और एक हारमोनियम वादक बैठ सकें। तबला वादक का बाहर सामूहिक बाल्कनी में बैठ कर चाव्ल के अन्य वासियों के कदमों से बच-बचा कर तबला बजाना पड़ता।
सुबह का समय था। कोठरी के अंदर ही एक स्नान करने का कोना था। अन्ना नहाने के लिए बैठे थे। कमरे के एक कोने पर तानपुरा पड़ा था। तभी कोई कमरे में आया, और तानपुरा छेड़ने लगा।
“ह्म्म, बजाते रहो, रुको मत!”, अन्ना ने कहा।
उन्होंने कहा कि बजाते रहो, फिर क्या था। तानपुरा के पंचम और षडज से कमरा गूंज उठा, और बुवा ने नहाते-नहाते ही तोड़ी गानी शुरू की। बाल्टी का पानी बह गया। उनका भींगा शरीर और तौलिया सूख गया। लेकिन जैसे मंगेशी का मंदिर जल से भर जाता है, वह कमरा भी तोड़ी के जल में मग्न हो गया।
उसके पिछली रात की बात थी। गिरगाँव के अम्बेवाड़ी गणेशोत्सव में उन्होंने वातावरण भैरवी के स्वरों से भर दिया था। वह मीराबाई का भजन ‘मत जा जोगी’ गा रहे थे। जब वह घर लौट कर आए होंगे, उनके हृदय में चुपके से तोड़ी प्रवेश कर गया होगा। यह उन्हें वश में कर चुका होगा। जब तानपुरा के स्वर उनके कान में पड़े, यह तोड़ी उनके हृदय से मुक्त होकर पुनः वातावरण में लौट आया। इसने एक छोटी से अंधेरी कोठरी को संगीत के भव्य मंदिर में परिवर्तित कर दिया। उनके भीगे शरीर को विस्मृत करते हुए, ये स्वर ‘लंगर के करिए’ रूप में निकले। इन स्वरों की आर्द्रता ने वहाँ मौजूद श्रोताओं को रस में भिगो दिया।
कई गायक अनुभव से तराश कर गाते हैं। लेकिन उनके संगीत में वह स्वरों का रस नहीं समाहित होता। गायकी से रसिकों को वह रस नहीं मिल पाता। बालगंधर्व के ‘दया छाया घे’ से अगर हमारा हृदय पिघलता है, तो वह उन स्वरों की कोमल आर्द्रता है जो हमें रस में डुबो देती है। उनके जैसे गायक श्रोताओं पर संगीत की वर्षा करते हैं। यह रस से भिगोने की क्षमता एक श्रोता के लिए महत्वपूर्ण है।
जैसे दक्षिणा से पहले सिक्कों को जल से सिक्त करते हैं, वैसे ही गायक हमें सिक्त करते हैं।
यह अन्ना के गायकी की विशेषता है। कई संगीतकारों के पास स्वरों का ख़ज़ाना है। अन्ना के पास स्वरों का जल-प्रपात है। वे बहते, प्रवाहित होते रहते हैं।
– पु. ल. देशपांडे (मूल मराठी लेख)
Author Praveen Jha translates an article on Mallikarjun Mansur originally written by Pu La Deshpande.