गाड़ियों में लोग तरह-तरह की सी.डी. रखते हैं, कब क्या बजाना है? हर मूड का गाना। रोमांस के लिए एक, लॉंग-ड्राइव के लिए एक, सैड मूड के लिए एक। मूड और मौसम का क्या भरोसा? अब मैं सुन रहा था ‘राग बहार’, कि कुछ बूँदें पड़ी, माहौल बन गया, और मैं ‘मल्हार’ में स्विच कर गया। मल्हार है मानसून का राग। जैसे ‘दीपक’ है गर्मियों की तपन का राग। ‘बसंत’ है बसंत का।
यह कहानी तो सुनी होगी कि मियाँ तानसेन को अकबर बादशाह ने ‘राग दीपक’ गाने कहा। उन्हें लगा, इस राग की तपन से वो खुद ही जल जाएँगें। उन्होनें इस राग को काटने के लिए अपनी ‘मल्हार’ बनाई, जिससे बारिश होगी, वो बच जाएँगें।
कहानी के कई वर्ज़न हैं। संभवतः राग दीपक तानसेन ने बनाया ही नहीं। लेकिन किंवदंती है, तानसेन राग दीपक की गर्मी से भागे-भागे वडनगर गए, वहाँ दो लड़कियों ‘ताना’ और ‘रीरी’ ने मल्हार गाया और वह बच गये। राग मल्हार से बारिश हुई और यही मियाँ की मल्हार कहलाई।
जैसे मियाँ की मल्हार है, मीरा की भी मल्हार है, रामदास की रामदासी मल्हार है। मेरा प्रिय गौड मल्हार है। असल यानी ‘शुद्ध मल्हार’ गुम हो गया। नहीं मिलेगा। मुझे यह यकीन नहीं होता कि इस राग से बारिश हो जाएगी, पर माहौल बनता है। थ्योरी है कि इसमें शुद्ध ‘नि’ (निषाद) और कोमल ‘नि’ दोनों हैं, तो कुछ प्रभाव डालते हैं। पता नहीं। फ़िल्मी गीत ‘बोले रे पपीहरा’ इस राग के चलन को समझने के लिए बेहतरीन उदाहरण है।
है गजब का ‘वीर रस’ इस राग में। अब जैसे मल्हार में ‘मदर इंडिया’ फिल्म का गीत ‘दु:ख भरे दिन बीते रे भैया’। इस राग को गाते वक्त कुछ गलती की तो यह राग बहार बन जाता है। और इसलिए राग बहार के बाद मल्हार गाना या बजाना शायद ही कोई कर पाए। यह चमत्कार बस एक बार उस्ताद बिस्मिल्लाह ख़ान ने किया था। हमारे लिए तो यह बारीकी समझना कठिन है, लेकिन मल्हार का गांधार (ग) कोमल है और कुछ अलग तरीके से लगता है।
एक संगीत पर आधारित फ़िल्म है ‘साज’। इसमें सुरेश वाडकर का गाया गीत ‘बादल घुमड़ बढ़ आए’ राग मियाँ की मल्हार का सरल उदाहरण है। उस्ताद राशिद ख़ान का ‘बिजुरी चमके बरसे’ भी सुनिए। मल्हार के माहौल को, जैसे बादल घिर रहे हैं, बिजलियाँ चमक रही है, और फिर फुरार आ रही है, इस प्रस्तुति में बेहतरीन निभाया है उस्ताद ने। एक और प्रस्तुति कहूँगा 1973 ई. के सदारंग म्यूज़िक कांफ़्रेंस में उस्ताद विलायत ख़ान का बजाया मल्हार। तीन ताल में निबद्ध यह लगभग डेढ़ घंटे की रिकॉर्डिंग मियाँ की मल्हार की सबसे खूबसूरत पेशकश में एक है। विलायत ख़ान का इमदादख़ानी बाज समझने के लिए और गत की बढ़त समझने के लिए इससे बेहतर उदाहरण नहीं। आप इसे इत्तेफाक ही कहेंगे लेकिन वाकई इसको दो बारी बजाते समय बारिश हुई और एक समय यह मैं जंगल के बीच खुले आसमान में बजा रहा था और द्रुत के समय बारिश होने लगी। यह अनुभव अलौकिक था, जैसे किसी वैज्ञानिक का प्रयोग सफल हो गया हो।
मॉनसून और बारिश की बात से किशोर दा के गीत याद आ गए। किशोर कुमार स्वयं ही कहते कि उन्होंने शास्त्रीय संगीत सीखा नहीं। न ही उन्हें रागदारी का इल्म है। बस वह अपने मन से और गले से किसी धुन पर गा देते। लेकिन किशोर कुमार के गीतों को सुन कर यह अहसास होता है कि उनकी गायकी में रागदारी है, तान है, मुरकी है, खटका है और सबसे गहरी बात कि राग का मूड बिल्कुल निशाने पर है। अर्धरात्रि में एक मंगलवार विविध भारती पर ‘रात के हमसफ़र’ प्रोग्राम सुन रहा था। रात के गानों में और ख़ास कर किशोर दा के गानों में किरवानी और पीलू का उपयोग अक्सर मिलता है। राग किरवानी सुगम और कर्णप्रिय है, लेकिन इसको परिभाषित करना कठिन है। महफ़िलों में यह राग खूब सुनने को मिलता है, क्योंकि महफ़िलें अर्धरात्रि में ही चरम पर होती हैं। लेकिन मुझे नहीं लगता कि यह सौ वर्ष पहले गाया जाता होगा। पुराने उस्तादों की गायकी में किरवानी का जिक्र कम है। भातखंडे साहब की किसी थाट पर यह राग फ़िट बैठता नहीं। यह राग दक्खिन से आया और बहुत बाद में आया। यह राग वाकई सम्मोहक और बिल्कुल ‘मिडनाइट राग’ है। पता नहीं इसका नाम कीरा (तोता) की वाणी क्यों रखा गया?
इसकी एक संतूर पर पं. शिव कुमार शर्मा की प्रस्तुति का जिक्र करुँगा। इस राग के स्वरों में जो कोमलता है, वह संतूर में खुल कर आयी है। ऐसी ही कोमलता पहाड़ी में भी नजर आती है। यह भले दक्खिन का राग हो, लेकिन इसमें छुपा रस पहाड़ी इलाकों की रात के संगीत से मेल खाता है। और इसलिए संतूर पर यह प्रस्तुति किरवानी का खूबसूरत उदाहरण है। और जाकिर हुसैन के तबले ने इसमें चार चाँद लगा दिए हैं। प्रस्तुति के मध्य 0:50:00 मिनट के आस-पास की जुगलबंदी में एक-एक स्वर खोल कर रख दिए हैं।