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लॉर्ड्स का मैदान देखने की इच्छा वर्षों से थी। जब से क्रिकेट की थोड़ी बहुत समझ हुई, यह इस खेल के स्वप्न-जगत सा दिखता। इस मैदान पर घास की धारियाँ जैसे अभी-अभी इस्तरी की गयी हो। सोचता कि लंदन की बारिश में यह पिच कितनी बार गीली होती होगी, और कैसे बार-बार सुखाई जाती होगी। यह भी कि इस पिच में ऐसा क्या था कि सुनील गावस्कर और सचिन तेंदुलकर जैसों के लिए भी इस पर शतक लगाना एक अधूरा ख़्वाब सा रह गया।
ब्रिटेन की औपनिवेशिक सत्ता खत्म हुए कई दशक बीत गए, मगर इस मैदान की थोड़ी-बहुत अकड़ अभी बाक़ी है। मैं जब वहाँ टिकट लेकर पहुँचा, तो मुझे कहा गया कि आपका समय आधे घंटे बाद का है। ठीक उसी समय हाज़िरी दें। न एक मिनट पहले, न एक मिनट बाद। मैं खार खाकर वहीं बाहर एक सराय में बैठ गया। इस सराय या यूँ कहें शराबखाने की भी अपनी अकड़ थी।
यह लॉर्डस टैवर्न था, जहाँ उन थॉमस लॉर्ड्स की तस्वीर लगी थी, जिन्होंने 1787 में यह मैदान और यह सराय बनवाया था। दरअसल यह महोदय एक साधारण क्रिकेट खिलाड़ी थे, जिन्होंने यह ज़मीन सस्ते दाम में खरीदी। यहीं उसी वर्ष कुछ रसूखदार लोगों के साथ उन्होंने एक क्रिकेट क्लब की स्थाप्ना की, हालाँकि आर्थिक कारणों से उन्हें यह ज़मीन बेचनी पड़ी। वह क्रिकेट क्लब आज तक क़ायम है- मर्लिबोन क्रिकेट क्लब यानी एम सी सी। लॉर्ड्स का नाम भी क़ायम ही है।
ख़ैर, इस बात को अब चार सदियाँ हो गयी, और जब मैं लॉर्डस का मैदान देखने पहुँचा, तो कुल तीस लोग मेरे साथ टिकट कटा कर आए थे। उनमें एक भी अंग्रेज़ नहीं था। तीस के तीस भारतीय! मैदान चाहे कोई भी हो, क्रिकेट की कुंजी तो अब भारत के हाथ में है। वहीं इस खेल के दर्शक हैं, वहीं इसकी पूछ है, और वहीं कम-ओ-बेश धन भी केंद्रित है।
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लॉर्ड्स का टूर एक बुजुर्ग करा रहे थे, जो दशकों से वहाँ कर्मचारी थी। उम्र सत्तर से अधिक ही होगी, कम नहीं। क्रिकेट-प्रेमी तो ख़ैर होंगे ही, उनकी भाषा भी यूँ थी जैसे ज्यॉफ बॉयकॉट कमेंट्री कर रहे हों। कुछ-कुछ व्यंग्य का वही लाटसाहेबी अंदाज़ भी। वह सबसे पहले हमें मैदान के बाहर एक दोमंजिले संग्रहालय में ले गए।
दरवाज़े के ठीक दाहिनी तरफ़ एक छोटा सा प्याला रखा था। किसी नवाबी इत्रदानी की तरह। दरअसल वह इत्रदानी ही था, जो अब कप का रूप ले चुका है।
1882 में ओवल के मैदान में इंग्लैंड और ऑस्ट्रेलिया के मध्य एक मैच हुआ। ऑस्ट्रेलिया ने पहली पारी में 63 रन बनाए। जवाब में इंग्लैंड ने 101 रन बना कर बढ़त ली। ऑस्ट्रेलिया ने दूसरी पारी में 122 रन बनाए। इंग्लैंड को जीत के लिए 85 रन चाहिए थे, और उनकी शुरुआत अच्छी रही। मगर ऑस्ट्रेलिया के तेज़ गेंदबाज़ फ्रेड स्पॉटफोर्थ ने ऐसी गेंदबाज़ी की, इंग्लैंड सात रन से हार गयी। ओवल मैदान में सन्नाटा छा गया!
अख़बार में खबर छपी – “इंग्लैंड क्रिकेट की अस्थियाँ अब ऑस्ट्रेलिया जा रही है”
इंग्लैंड के कप्तान इवो ब्लिग ने अगली बार ऑस्ट्रेलिया दौरे पर जाते हुए कहा- “हम अपनी अस्थियाँ (एशेज) वापस लाने जा रहे हैं”
वहाँ इंग्लैंड ने आखिर शृंखला जीती। वहाँ बैठी एक संभ्रांत महिला फ्लोरेंस मर्फी ने कुछ गिल्लियाँ जलायी, और उसकी राख अपनी इत्रदानी में डाल कर इंग्लैंड के कप्तान को थमा दी। ब्लिग ने वहीं के वहीं उनसे शादी का प्रस्ताव रख दिया, और इस तरह वह अस्थियाँ और ऑस्ट्रेलियाई महिला दोनों को लेकर इंग्लैंड आ गए। उसके बाद इस घटना का ज़िक्र कई वर्षों तक नहीं हुआ। वह इत्रदानी भी ब्लिग के घर में ही पड़ी रही।
कई वर्षों बाद एमसीसी ने उनसे यह इत्रदानी माँगी, और उसे लॉर्ड्स लेकर आ गए। यह हमारे सामने रखी थी, मगर किसी ने इसे खोल कर नहीं देखा कि वाकई इसमें राख-वाख है भी कि नहीं। यह एक दंतकथा बन कर रह गयी, मगर इंग्लैंड-ऑस्ट्रेलिया के मध्य शृंखला ‘एशेज’ कहलाने लगी।
उसी इत्रदानी के आधार पर कप बनाए गए, और जब मैं वहाँ पहुँचा तो इंग्लैंड के जीते कई कप रखे थे। मगर एशेज कप के बोर्ड के सामने लिखा था- “(क्षमा करिए!) हमारे एशेज फिलहाल ऑस्ट्रेलिया में हैं”
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हमारे जैसे भारतीय के लिए तो यह महत्वपूर्ण था कि यह मैदान हमसे कैसे जुड़ा है। हम इस मैदान में क्यों घूमें?
एमसीसी अगर लंदन के किसी मुहल्ले में सिमट जाती, तो यह सवाल माकूल होता। मगर जो नींव लॉर्ड्स और ओवल के मैदानों में पड़ी, वह सात समंदर पार मुल्कों में भी पहुँची। उसी संग्रहालय में फिजी, समोआ आदि द्वीपों के बल्ले रखे थे। ये इंग्लैंड से नहीं गए थे, उन बल्लों से वहाँ के मूल निवासी कुछ मिलता-जुलता खेल खेलते थे। इससे यह तर्क बलवान होता है कि यह खेल इंग्लैंड की जागीर नहीं है। इसे अलग-अलग रूपों में कई स्थानों में खेला जाता रहा। ख़ास कर समुद्रतटीय इलाकों पर नारियल या तार की शाखाओं को बल्ला बना कर। इंग्लैंड ने इस खेल को औपचारिकता दी, नियम बनाए, मैदान बनाए…
यहीं एक पुरानी तस्वीर लगी है, जिसमें अंग्रेज़ बल्लेबाज़ी कर रहे हैं, और गुजराती परिधान और टोपी पहने भारतीय क्षेत्ररक्षण कर रहे हैं। किनारे में कुछ भारतीय सेवक चाय-पानी लेकर खड़े हैं। यह उन पारसीयों की तस्वीर थी जिन्होंने भारत में सबसे पहले अंग्रेज़ों के साथ खेलना शुरू किया।
वहीं अगले खाने में 1983 का प्रूडेंशियल विश्व कप रखा था। मैंने पूछा कि यह तो कपिल देव ने उठाया था, और इसे भारत में होना चाहिए था। उन्होंने कहा कि दरअसल यह प्रूडेंशियल कंपनी की संपत्ति थी, जो आयोजक थे। इसलिए यह कप भारत नहीं ले जा सकते थे। बाद में यह लॉर्ड्स के संग्रह में ही रह गया। मेरे भारतीय मन ने कहा कि इन्होंने कोहिनूर तो क्या हमारा पहला विश्व कप भी दबा कर रखा है। और-तो-और वहाँ एक सौरभ गांगुली का टी-शर्ट रखा था!
मैंने पूछा कि क्या वह वही टी-शर्ट है, जो गांगुली ने मैदान में उतार कर लहराया था। उन्होंने हँस कर कहा- हाँ, वही है। मगर यह हमने गांगुली से माँग कर रखी है।
समय के साथ बदलते बल्लों का भी अच्छा संग्रह था। एक बल्ला हॉकी की तरह मुड़ा हुआ था, जिससे किसी ज़माने में क्रिकेट खेला जाता था। एक साधारण बल्ला था, जो दिग्गज दक्षिणी अफ्रीकी खिलाड़ी बैरी रिचर्ड्स का था। उसके साथ ही कुमार संगक्कारा का बल्ला था, जो दोगुना मोटा था। वहीं साथ रखा था लंबे हैंडल और चारगुना मोटाई वाला ‘मौन्गूज बैट’। इसे ऑस्ट्रेलियाई खिलाड़ी मैथ्यू हैडेन भाँजते थे।
वहीं एक मरी हुई गौरैया पक्षी भी संभाल कर रखी थी। वह लॉर्ड्स के मैदान में किसी बल्लेबाज़ के छक्के से मर गयी थी!
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संग्रहालय के बाद हम लॉर्ड्स के ड्रेसिंग रूम की ओर बढ़े। सीढ़ियों से चढ़ते ही सामने वेस्टइंडीज़ खिलाड़ी विवियन रिचर्ड्स की तस्वीर लगी थी। दाहिने तरफ़ ‘लॉन्ग रूम’ था, जिसे हॉल ऑफ फेम भी कहा जाता है। मैच के दौरान वहाँ जाने की इजाज़त खिलाड़ियों को नहीं है। वहाँ सिर्फ़ एमसीसी के गणमान्य सदस्य ही बैठ सकते हैं। यह कहा जा सकता है कि दुनिया में क्रिकेट की शुरुआत इसी कमरे में चाय पीते नियम बनाते हुई होगी। इस बात की गवाही कमरे में घुसते ही जॉर्ज फिंच की तस्वीर थी। यह अमरीका की आज़ादी के युद्ध में इंग्लैंड सेना से लड़ रहे थे। एमसीसी के स्थापक सदस्यों में थे, और क्रिकेट के पहले लिखित नियम इन्होंने भी बनाए।
वहीं एक बल्ला पकड़े लंबी दाढ़ी वाले व्यक्ति की तस्वीर थी। यह क्रिकेट के पितामह कहे जाने वाले विलियम गिल्बर्ट ग्रेस थे। टूर करा रहे बुजुर्ग ने कहा कि एक बार स्कूली बच्चों का एक समूह वहाँ आया था। उन्होंने जब इस लंबी दाढ़ी वाले व्यक्ति का नाम बच्चों से पूछा, सबने एक सुर में कहा- मोईन अली!
हॉल ऑफ फेम में कुछ गिने-चुने खिलाड़ियों की ही तस्वीर थी, जिसे अलग-अलग चित्रकारों ने अपने कूचे से रंगा था। कैरीबियन सागर से नहा कर निकलती लाल अर्धनग्न काया ब्रायन लारा की थी। अपनी टेढ़ी केहुनी के साथ आँखें निकाल कर गेंद डालती मुतैया मुरलीधरन की। गंभीर मुद्रा में सूट-बूट में बैठे माइक आथरटन। काल-कोठरी में गुमसुम उदास बैठे ग्लेन मकग्राथ। दरअसल चित्रकार ने जब उनकी तस्वीर बनायी, वह अपनी पत्नी की असमय मृत्यु से दुखी थे। भारतीय खिलाड़ियों की सिर्फ़ दो तस्वीरें थी। वह सचिन तेंदुलकर या सुनील गावस्कर नहीं थे।
पहले तो खैर वह व्यक्ति थे, जिन्होंने इसी मैदान में विश्व कप उठाया था। कपिल देव की विराट छवि हॉल के बीचों-बीच है, जिसमें वह सफेद स्वेटर में, घनी मूँछों और चमकती आँखों के साथ हवा में गेंद उछाल रहे हैं। दूसरी तस्वीर किसकी हो सकती है?
यह तस्वीर कपिल देव के ठीक दाहिनी तरफ़ लगी है। वह कुछ उदास खड़े हैं। उनकी गिल्ली उड़ गयी है, और पवेलियन खाली है। ऊपर काले बादल मंडरा रहे हैं। ऐसा कहा जाता है कि उन्होंने चित्रकार को काफ़ी देर इंतज़ार कराया था, जिसका बदला उन्होंने इस तरह लिया। बहरहाल, यह इकलौते ग़ैर-ब्रिटिश खिलाड़ी हैं, जिन्होंने इस मैदान में तीन शतक लगाए। इन्हें कर्नल के नाम से भी जाना जाता है।
हॉल ऑफ फेम के उन भारतीय खिलाड़ी का नाम है- दिलीप वेंगसरकर!
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लॉन्ग रूम के बाद हम मेज़बान ड्रेसिंग रूम गए। यहाँ जाने की इजाज़त इंग्लैंड, एमसीसी या मिडलसेक्स टीमों को ही है। वहाँ उन खिलाड़ियों के नाम दर्ज हैं, जिन्होंने यहाँ शतक लगाया या पाँच विकेट लिए। मसलन ग्राहम गूच द्वारा 1990 में भारत के खिलाफ़ बनाए 333 रन का जादुई आँकड़ा वहाँ दर्ज़ है। वहीं बाहर वह मुंडेर है, जहाँ खड़े होकर विश्व कप लहराया जा सकता है।
मेहमान ड्रेसिंग रूम इसके समानांतर सीढ़ियों के दूसरी तरफ़ है। वहाँ भी वैसे ही नाम दर्ज हैं। दिलीप वेंगसरकर का तीन बार। सचिन का एक बार भी नहीं। अलबत्ता सुनील गावस्कर ने अपना नाम डलवा लिया है, मगर उनके सामने भारत नहीं, रेस्ट ऑफ़ वर्ल्ड लिखा है। यह एक प्रदर्शनी मैच था, जिसमें उन्होंने इमरान ख़ान के साथ मिल कर 180 रन की साझेदारी की थी। एक अन्य अप्रत्याशित भारतीय खिलाड़ी का नाम भी है, जिनके जीवन का यह इकलौता शतक था। वह खिलाड़ी हैं- अजीत अगरकर।
इसी ड्रेसिंग रूम की मुंडेर पर कपिल देव ने कप लहराया था, और सौरभ गांगुली ने अपनी टी-शर्ट उतारी थी। यहाँ खड़े होकर एक सेल्फी तो बनती है।
यहाँ से निकल कर हम सीधे मैदान पहुँचे। वहाँ रॉलर चल रहे थे, घास समतल किए जा रहे थे। मैदान के आखिरी छोर यानी आउटफील्ड पर अच्छी-ख़ासी ढलान है। मैदान के उत्तरी और दक्षिणी छोर के बीच कुछ आठ फ़ीट की ढलान है! जो लोग क्रिकेट देखते या खेलते हैं, वह समझ गए होंगे कि यह मैदान आखिर कठिन क्यों है। मगर ऐसा किया क्यों गया?
गाइड महोदय ने बताया कि दरअसल लंदन में बारिश बहुत होती है। इसलिए यह ढलान ज़रूरी है, ताकि पानी न जमे। गेंदबाज़ों को दिक़्क़त आती है, लेकिन अगर वे चालाक हैं तो इसे अपने फ़ायदे के लिए भी प्रयोग कर सकते हैं।
मैदान में दर्शकों के लिए अलग-अलग स्टैंड हैं। जैसे माउंड स्टैंड पहले एक क़ब्रगाह था। ग्रैंड स्टैंड तो सबसे भव्य है ही। टैवर्न स्टैंड में पहले शराबखाना था। प्रेस स्टैंड में अखबार वाले बैठते हैं। पूरे मैदान में इकतीस हज़ार दर्शकों के बैठने की जगह है, जो आज के मैदानों के मुक़ाबले कम ही है।
मैदान से निकल कर जब हम बाहर आए, तो वहाँ एक बगीचा था। उस पर हर बेंच में एक व्यक्ति का नाम लिखा था, जो एमसीसी के सदस्य रहे थे। जैसे एक बेंच उन विस्डेन के नाम पर था, जिन्होंने दुनिया भर के खेल आँकड़े दर्ज़ करने की परंपरा शुरू की। वहीं दाढ़ी वाले विलियम गिलबर्ट ग्रेस की मूर्ति लगी थी, मगर उन्होंने बल्ला कुछ यूँ पकड़ रखा था, जैसे वह मिड-ऑन पर कैच दे रहे हों।
किंवदंती है कि जब ग्रेस इस तरह वाकई सस्ते में आउट हो गए, तो गिल्लियाँ जेब में डाल कर निकल गए।
उन्होंने गेंदबाज़ से तन कर कहा- “इतने सारे लोग सिर्फ़ मुझे देखने आए हैं। अब मैं आउट हो गया, तो खेल कौन देखेगा”
वह ज़माना और था। अब तो कितने ग्रेस आए, कितने गए। खेल किसी के आउट होने से बंद नहीं होता। गेम गोज ऑन!
Author Praveen Jha takes on a tour to the Lord Stadium encompassing the history of cricket in a nutshell.
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Dr प्रवीण झा कलम के जादूगर हैं। उनका लेख काफ़ी रोचक रहता है और ज्ञानवर्धक भी। इस लेख से मुझे कई नई जानकारियां प्राप्त हुईं।