विद्यार्थियों के लिए गांधी की गाइड में क्या था?

London Guide Gandhi Poster
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गांधी ने लंदन पहुँचने के बाद विद्यार्थियों के लिए एक गाइड लिखने का निर्णय लिया। वह स्वयं भी विद्यार्थी थे, तो चाहते थे कि अन्य विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करें। कैसे एडमिशन लें, कहाँ रुकें, कैसे पैसे बचाएँ, ये सवाल तो अब भी हर विद्यार्थी के मन में होते हैं।
Translation of London Guide written by Mohandas K Gandhi. Translated by Praveen Jha

लंदन गाइड (विद्यार्थियों के लिए)

भूमिका

आजकल लेखक इतने अधिक और प्रकाशन इतना सस्ता हो गया है कि लेखक का महत्व ही नहीं रहा। तो यह पहले बता दूँ कि मैं लेखक नहीं हूँ। ‘गाइड’ लिखने वाले लेखक नहीं कहलाते। लेखक गहरी बातों पर लिखते हैं। 

पिछले बीस साल से लोग इंग्लैंड जा रहे हैं, लेकिन कोई गाइड नहीं लिखता। जो लिखते हैं, वो लंदन की बड़ाई तो करते हैं, लेकिन यह नहीं बताते कि जाना कैसे है? इतने बैरिस्टर बन गए, लेकिन किसी ने इसके संघर्ष की बातें नहीं लिखी। मुझसे इतने लोगों ने पूछा तो सोचा कि अब यह लिख ही दिया जाए। 

इस किताब के नहीं लिखे जाने की वजह मुझे पता है। यह कई राज खोलेगी, जो कोई अमूमन बताना नहीं चाहता। खामख्वाह विवाद होंगें। किसी को जैसे यह पता ही नहीं कि हिंदुस्तानी आखिर लंदन में क्या और कैसे पकाता-खाता है। मैं अब कई छुपे राज खोलूँगा।

मुझे पता है कि यह राज खुलते ही कई मित्र मुझसे बैर कर लेंगें। लेकिन मैनें भी सच लिख कर तूफ़ान लाने का ठान ही लिया है। 

आप पूछेंगें कि क्या मैं यह लिखने के काबिल हूँ। इसका फैसला आप ही करें। मुझे पता है कि मुझसे काबिल लोग भरे पड़े हैं। लेकिन काबिल लोगों के पास वक्त कहाँ?

इस किताब में ग़लतियाँ ज़रूर होंगीं, पर झूठ एक न होगा। मेरी इस बात का भरोसा रखें। मैं पाठकों से विनती करूँगा कि मेरी किताब खरीदें, और उससे भी महत्वपूर्ण कि उसे पढ़ें। जो अन्य किताबों में पहले से लिखा है, उसका संदर्भ दूँगा। लेकिन कोशिश वही लिखने की करूँगा, जो पहले कभी लिखा नहीं गया। 

-मोहनदास करमचंद गांधी

 

लंदन किसे जाना चाहिए?

मोटे तौर पर जिसके पास भी सामर्थ्य हो, उसे लंदन जाना चाहिए। सामर्थ्य का अर्थ है पर्याप्त धन, युवा उम्र, अच्छा स्वास्थ्य और पारिवारिक जिम्मेदारियों से कुछ हद तक मुक्ति। 

पहली बात कि जिसको भी छाती की समस्या हो, या फेफड़े की बीमारी हो, वो लंदन न ही जाए। बशर्तें कि वहाँ जाकर मरने की इच्छा हो। हालांकि कमजोर स्वास्थ्य वाले भी गर्मियों में लंदन जा सकते हैं, लेकिन यहाँ मैं विद्यार्थियों की बात कर रहा हूँ। कुछ लोग भारत की गर्मी में बीमार पड़ते हैं, उनकी हालत भले ही ठीक हो जाती है। लेकिन चिकित्सकीय सलाह जरूर ले लेनी चाहिए।

बीमारी की बात न ही करूँ, अब अच्छी बातें करता हूँ। गर धन हो और उम्र हो तो लंदन जाएँ। लेकिन बस इतना ही काफी नहीं। लंदन तीन कारणों से जाना चाहिए- शिक्षा, पर्यटन या व्यापार। अब व्यापार के लिए कम लोग जाते हैं, लेकिन वो सबसे अधिक जरूरी है। भारत से लंदन का व्यापार आवश्यक है। इसके लिए लंदन को समझना जरूरी है। शिक्षा और पर्यटन पर जाने वाले अक्सर इस आंख से नहीं देखते, व्यापार समझने के लिए लंदन अच्छी जगह है। लकड़ी, पत्थर और पंख के कारोबार के लिए लंदन में अच्छे अवसर हो सकते हैं। हमारे यहाँ जो चीजें बेकार नजर आती है, लंदन में उनकी अच्छी कीमत है।

भारत को अपने संसाधनों की ताकत समझनी जरूरी है, खास कर उन साधनों की, जो हम बरबाद कर देते हैं। 

मुझे यह दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि जो भी लंदन जाता है, बैरिस्टर बन कर लौटता है। शिक्षा का मतलब बैरिस्टर बनना ही नहीं है। सिविल सर्विस की परीक्षा सबसे आकर्षक है, लेकिन उसमें ब्रिटिश पैदाइश के लोग ही बैठ सकते हैं। कूपर हिल कॉलेज की इंजीनियरिंग अच्छी है। लंदन विश्वविद्यालय की डॉक्टरी की पढ़ाई सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन डॉक्टरी में वक्त लगता है। पांच साल कहते हैं, सात साल लग जाते हैं। ऑक्सफोर्ड और कैम्ब्रिज़ तो अमीरों के लिए है। इन विश्वविद्यालयों की शिक्षा भारत से अलग है। यहाँ मेहनत कम है। यहाँ शिक्षा और मनोरंजन साथ चलता है। भारत की तरह नहीं कि बस पढ़ने में ही सारा समय चला गया। 

सब के बारे में तो नहीं बता पाऊँगा। चिट्ठी भेज कर प्रोस्पेक्टस मंगाना ही बेहतर रहेगा। एडिनबरा में भी कई भारतीय जा रहे हैं, खासकर डॉक्टरी पढ़ने। वहाँ का मेडिकल कोर्स लंदन से सुलभ है। एक मेडिकल डिप्लोमा डरहम भी देता है।

लोग कहते हैं कि भारत में सभी शिक्षाएँ कम खर्च में मुमकिन है। मैं सहमत हूँ। लेकिन अभी लंदन की शिक्षा भारत से बेहतर है। इसलिए लंदन से शिक्षा उपयोगी तो है ही। भारत में छात्र आधा विद्यार्थी होता है, आधा पुरूष। उस पर अपनी पत्नी और परिवार की जिम्मेदारी होती है। लंदन में कोई पत्नी नहीं होती जो मन भटकाए, न माता-पिता जो लाड़ दें, न बच्चे जिनको संभालना पड़े। आदमी बस अपनी इच्छा से चलता है, और अधिक सीख पाता है। मौसम भी इंग्लैंड का ऐसा है कि पढ़ने का मन करता है। भारत की गर्मी में नींद बहुत आती है। गर्मी में सोने से अधिक कोई सुख नहीं। 

हालांकि, भारत में भी कर्मठ लोग हैं, जो कभी नहीं थकते। बल्कि सबसे मेहनती विद्यार्थी भारत में ही मिलते हैं। लेकिन इंग्लैंड में आलस कम है, और पढ़ने में आनंद है। मुझे एक प्रोफ़ेसर ने कहा कि वो लंदन में तीन साल में इतना सीख गए, जिसके लिए भारत में नौ साल लगते। हम भी भारत में ठंड में अधिक काम कर लेते हैं, तो यह बात ठीक लगती है। यह तो बताने की जरूरत नहीं कि लंदन में अंग्रेजी सीखना भी आसान है। 

जो काम नहीं करना चाहते, या सीखना नहीं चाहते, उन्हें शायद लंदन पसंद न आए। लेकिन इसमें गलती लंदन की नहीं, उनकी है।

काम न करने वालों के लिए लंदन और भारत सब बराबर ही है। 

मैं अब यह बताऊँगा की लंदन जाने से पहले कैसी तैयारी करनी चाहिए। हो सकता है कि मैं इतनी बारीकी से बताऊँ कि लोग बुरा मान जाएँ, पर एक तो मेरी बुद्धि कम है और मैं उससे भी कमजोर लिखने जा रहा हूँ ताकि सब समझ सकें।

पहली चीज है धन। कुछ लोग पूरा धन एक साथ ले जाते हैं, कुछ किश्तों में। अगर उधार की बात है तो पूरा धन जुगाड़ कर ही जाएँ, अन्यथा बाद में लोग मुकर जाते हैं, और लंदन से बारम्बार गिड़गिड़ा कर चिट्ठी लिखना कठिन है। चार शिलिंग प्रति शब्द तो बेतार चिट्ठी लिखने का खर्च है। और लंदन में कोई एक पैसा कर्ज नहीं देता। इसलिए धन पूरा इकट्ठा कर जाना ही बेहतर है।

दूसरी चीज है किसी परिचित के नाम चिट्ठी। वहाँ पहुँच कर चिट्ठी दिखाने से कई दोस्त बन सकते हैं। 

अब खर्च जोड़िए:

1. ओवरकोट – 30 रूपए

2. मॉर्निंग कोट – 20 रूपए

3. वेस्ट-कोट – 10 रूपए

4. जैकेट – 30 रूपए

5. पैंट (एक जोड़ी) – 27 रूपए

6. 12 ऊनी गंजी – 38 रूपए

7. सफेद शर्ट – 1 रूपया

8. 3 कॉलर – 1 रुपया

9. 12 रूमाल – 1 रूपया 4 आना

10. 9 मोजे – 7 रूपए

11. 1 जोड़ी जूते – 4 रूपए

12. 1 जोड़ी चप्पल – 1 रूपया 4 आना

13. रेज़र – 2 रूपया

14. शेविंग ब्रश – 1 रूपया

15. कंघी – 8 आना

16. टूथ-ब्रश – 4 आना

17. कागज – 8 आना

18. लिफाफे – 4 आने

19. सूई-धागा – 4 आने

20. लाठी – 1 रूपया

21. छाता – 4 रूपया

22. दवात-स्टैंड – 8 आना

23. पेन-स्टैंड – 8 आना

24. चाकू – 1 रूपया 4 आना

25. कलम – 8 रूपया

26. और कुछ अन्य

कुल खर्च – 282 रूपया 4 आना

इतने दाम में मैनें खरीदी थी। आप कुछ और दुकान घूम कर सस्ते में खरीद लें, हालांकि मैनें सबसे सस्ती दुकानों से ही खरीदे। बंबई के कुछ देशी दुकान घूमें। अंग्रेज़ी दुकानें मंहगी हैं। किसी अनुभवी व्यक्ति को साथ ले जाएँ, जो मोल-भाव का उस्ताद हो।

मैनें लिखा की दो बक्से खरीदने हैं, जिनकी कीमत सोलह रूपए हैं। 26×12 इंच के। कई लोग कहते हैं कि एक स्टील का ट्रंक और एक चमड़े का बैग लेना चाहिए। उनकी कीमत पचास रूपए पड़ेगी, जो फिजूल है। मैनें तो बारह रूपए में ही बढ़िया बक्सा खरीदा था, इसलिए मोल-भाव कर लोहे का सबसे सस्ता और टिकाऊ ही लें। स्टील-चमड़े ज्यादा नहीं टिकते।

लोहे के बक्से स्वदेशी हैं, जिससे अपने कारीगरों को धन मिलेगा। चमड़े तो विदेशी हैं।

उससे भी सस्ता उपाय है लकड़ी के बक्से, जो पांच रूपए में बढ़िया मिल जाते हैं। 

ऐसे ही मोजे भी सस्ते बंबई में मिल जाएँगें, ऊनी। तौलिया-साबुन जहाज का ही प्रयोग करें। वहाँ मुफ्त है। अपना वाला बचा कर ही रखें।

जहाज पर क्या पहनें? 

कुछ लोग भारी कपड़े लाद लेते हैं, कुछ बिल्कुल हल्के। यह सही कपड़े का संतुलन जरूरी है, जो न बहुत भारी हो, न हल्की। जैसे ऊनी अंतर्वस्त्र की जरूरत तभी पड़ेगी जब आप पोर्ट सईद पहुँचेंगें, उससे पहले नहीं। जब तक आप ब्रिंदीसी न पहुँचे, ओवरकोट न पहनें। पर यह कोई सख़्त नियम नहीं। किसी को अधिक ठंड लगती है, किसी को कम। बस मैं ये कह रहा हूँ कि लंदन जाने का मतलब यह नहीं कि तमाम भारी कपड़े पहन लिए, और गर्मी से जान जाने लगे। जहाज जैसे-जैसे आगे बढ़े, कपड़े भी एक-एक कर तभी बढ़ाते चलें। 

सफ़ेद कपड़े खरीदने आपको सब कहेंगें। आजकल वही फैशन है। लेकिन यह किताब मैं लिख रहा हूँ ताकि विद्यार्थियों के पैसे बचें, फ़ैशन के लिए नहीं। सफ़ेद कपड़े धुलवाने में ही आप लुट जाएँगें।

खादी का कपड़ा सस्ता है, और जल्दी गंदा नहीं होता। धोने पर खराब भी नहीं होता। खादी रोज भी पहनो, तो अजीब नहीं लगता।

सफेद सूती कपड़े मैले दिखने लगते हैं। बल्कि अंग्रेज़ भी, जो फ़ैशन को देवी नहीं मानते, वो ये रेडीमेड कपड़े त्याग चुके हैं। चिकित्सक भी कह रहे हैं कि इनको धोने में खामख्वाह अधिक चरक का प्रयोग होता है, जो हानिकारक है। कुल मिलाकर खादी कपड़ों के सामने ये सूती रेडीमेड कपड़े बिल्कुल फिसड्डी हैं।

जहाज पर या लंदन में सुविधानुसार तुर्क टोपी या गोल हैट पहनी जा सकती है। दंत-मंजन के लिए सबसे सुलभ है चॉक पाउडर, जो चार आउंस रख लें, महीनों चल जाएगा। चप्पल मात्र जहाज में या अपने कमरे में ही काम आएगा, बाकी जगह जूते पहनने होंगे। 

कुछ बेवकूफ लंदन के लिए ड्रेस सूट खरीद लेते हैं। मैं स्वयं उन बेवकूफों में हूँ। यह ख़्वाह-म-ख़्वाह फालतू खर्च है। यह शाम की पार्टियों के लिए है, लेकिन भारतीयों को जरूरत नहीं। वह पारसी कोट या सबसे बढ़िया अपना देशी परिधान पहन कर जाएँ। कई लोग कोट पहन कर जाते हैं। जो भी पहनें, बस साफ-सुथरा हो।

घड़ी का जिक्र मैंने नहीं किया। घड़ी भी कोई जिक्र करने की चीज है? यह तो शरीर का ही हिस्सा बन गया है।

अब टिकट खरीदने की बात करता हूँ। बिना टिकट आप लंदन नहीं जा सकते। तीन चीजें पता होनी चाहिए-

1. किस महीने में जाना है?

2. सारा रास्ता समंदर से ही जाना है या ब्रिंदीसी का रास्ता लेना है?

3. किस जहाज कंपनी से जाना है?

लंदन जा तो किसी महीने में सकते हैं, लेकिन मार्च में जाने के दो फायदे हैं। एक तो विलायती ठंड से सामना देर से होगा, और दूसरा यह कि अप्रिल से सितंबर के महीने खूबसूरत हैं। इन छह महीनों में विद्यार्थी मौसम को समझने लगेंगे, और ठंड के लिए तैयार हो जाएँगे। मार्च में समंदर भी जहाजों के लिए शांत है- ख़ास कर लाल सागर। 

दूसरा समय है सितंबर-अक्तूबर। बैरिस्टरों के लिए यह समय सर्वोत्तम है। भले ठंड का सामना करना पड़े, वकालत की पढ़ाई जल्द खत्म होगी और तीन महीने जल्दी आप भारत लौट सकेंगे। 

जहाज कौन सी लें?

सीधे लंदन तक जाने में जहाज को 22 दिन लगते हैं। जबकि ब्रिंदिसी तक जाने में 13 दिन, और वहाँ से ट्रेन का रास्ता दो दिन का। लेकिन, सारा बोरिया-बिस्तर उठा कर ट्रेन में रखना भी झंझट ही है। मेरा सुझाव है कि कुछ दिन ज्यादा जहाज पर बिता कर सीधा लंदन उतरा जाए। जहाज पर रहना स्वास्थ्य के लिए भी बेहतर है, और जेब के लिए भी। लंदन का जहाजी टिकट 370 रुपए है, और ब्रिंदिसी के रास्ते 400 रुपए लग जाएँगे। तीस रुपए बचा लेना ही अच्छा रहेगा। यह जरूर है कि जहाज कहीं भी डूब सकता है, तो इस डर से लोग जल्दी उतर जाना चाहते हैं। लेकिन डूब तो कुछ भी सकता है। ट्रेन दुर्घटना भी हो सकती है। मौत का ही डर था तो लंदन के सफर पर क्यों आए? ऐसे डर-डर कर जीने से अच्छा है कि विद्यार्थी तीस रुपए बचा लें। बेहतर जी पाएँगे।

यूँ तो कई कंपनियाँ है, जैसे सिटी, हॉल और क्लान कंपनी के स्टीमर। लेकिन सबसे अच्छी व्यवस्था है पी. एन्ड ओ. कंपनी की, जिससे ब्रिटिश सरकार की चिट्ठियाँ भी जाती है। यह थोड़ी मँहगी है लेकिन थॉमस कुक से बुकिंग कराने में सुविधा है। बाकी सस्ते हैं, और अगर उनसे जाना हो, तो मैनेज़र से मोल-भाव भी संभव है। लेकिन मैं पी. एन्ड ओ. कंपनी का ही सुझाव दूँगा।

फर्स्ट-सलून से जाएँ या सेकंड-सलून से, यह तो जेब पर निर्भर करता है। प्रथम श्रेणी में अच्छा भोजन और रईस लोग हैं, लेकिन द्वितीय श्रेणी का भी भोजन अच्छा है। शाकाहारी लोगों के लिए तो प्रथम श्रेणी में खर्च बेकार है। माँसाहारी की व्यवस्था प्रथम श्रेणी में बेहतर है। द्वितीय श्रेणी में 370 रुपए लगेंगे, प्रथम में 680 रुपए। 

भोजन की कुछ बातें बताता चलूँ। माँसाहारी तो खैर कुछ भी खा लेंगे। उनको समस्या नहीं। मेरी शिकायत तो इन कंपनियों से यह है कि ये खिलाते बहुत हैं। सुबह से रात तक खिलाते ही रहते हैं। सात बजे सुबह से चाय-कॉफी मिलनी शुरु हो जाती है। साढ़े आठ बजे ब्रेड, मक्खन, दलिया, जैम, आलू और तमाम चीजें नाश्ते में। एक बजे माँस, आलू, ब्रेड, मक्खन, अंडे मिल जाते हैं। चार बजे चाय-बिस्कुट और फिर आठ बजे गरिष्ठ भोजन। कई लोग तो बिस्तर पर जाने से पहले भी ब्रेड-मक्खन खा लेते हैं। शाकाहारी भी ऊपर बतायी चीजों में कई चीजें खा सकते हैं। शुरु में स्वाद भले न पसंद आए, लेकिन भोजन पुष्ट है।

मैं तो अपनी तरफ से हलवा, जलेबी और गठिया भी ले गया था; स्वाद के लिए। बस यह ध्यान रहे कि भारतीय भोजन बचा कर खाएँ, और जहाज का मुफ्त भोजन अधिक। शाकाहारी लोग ब्रेड-मक्खन और भरपूर दलिया खा लें, वही बहुत है। साथ में दो-चार आलू खा लिए, फिर तो पेट यूँ ही भर जाएगा। कुछ धार्मिक लोग यूरोपीय का बनाया खाना नहीं खाते, उनको एक छोटी रसोई भी मिल जाती है। लेकिन, फिर सब खुद ही बनाना होगा। मैं इस विषय में सुझाव नहीं दूँगा कि यह सही है या ग़लत। मैं बस जानकारी दे रहा हूँ।

‘वेजिटेरियन’ अख़बार के संपादक ने मुझे कहा है कि वह भारतीयों की इस संबंध में मदद करेंगे। मेरी विनती बस यह है कि इस मदद के बदले आप लोग इस अखबार की प्रतियाँ लें और शाकाहारी मुहिम में साथ दें। लेकिन जिन्हें इससे नहीं जुड़ना, उनके लिए कुछ होटल के नाम मैंने पुस्तक के अंत में दिए हैं।

लंदन में कहाँ रुकें?

अब आता हूँ लंदन में रहन-सहन के खर्च पर। यह ऐसा प्रश्न है जिसका उत्तर सब जानना चाहते हैं, लेकिन सहमत कोई नहीं होता। हर कोई अपना अलग हिसाब बताएगा। हालात ये हैं कि भारतीयों को खर्च का अंदाजा ही नहीं रहता और लंदन उठ कर आ जाते हैं। लोग यह कहते रहे हैं कि दस से बीस पाउंड में महीना चल जाएगा। मैं कहता हूँ कि चार पाउंड प्रति महीने में भी घर चल सकता है। मैं चार पाउंड प्रति महीने में खुशी-खुशी रहा। हालांकि मेरी भी शुरुआत बारह पाउंड प्रति महीने से हुई थी, लेकिन मैं चार पाउंड तक कुछ परिश्रम करके आ गया। 

पहले तो घर की ही बात करूँ। अधिकतर विद्यार्थी दो कमरे के घर लेते हैं। एक बेडरूम, एक लिविंग रूम। इसकी क्या जरूरत है? यह किताब मैं रईसों के लिए नहीं लिख रहा। एक कमरे में ही विद्यार्थियों को रहना चाहिए। सात सेंट प्रति हफ्ते में बढ़िया कमरा मिल जाएगा। धोबी का खर्च ग्यारह पेंस प्रति हफ्ते लगेंगे। मैंने खुद कपड़े धो कर यह खर्च बचा लिया। नहाने के लिए सार्वजनिक स्नानागार सस्ते में मिल जाते हैं। मैं वह भी मुफ्त में करता रहा। एक स्पंज ले लो, और बेसिन में भिगो कर पूरा देह पोछ लो। स्पंज से मल-मल कर रगड़ोगे, तो स्नान हो ही गया। बाहर क्यों खर्च करना? ठंड में वैसे भी कौन रोज नहाता है?

यात्रा-खर्च में हर हफ्ते छह डाइम बहुत हैं। घर वहीं ढूँढे, जहाँ पढ़ाई करते हों ताकि पैदल जा सके। वीकेंड में दोस्तों से मिलने में जो खर्च लगेगा, बस वही। लेकिन मैं कहूँगा कि उसमें भी यथासंभव सफर चल कर ही पूरा करें। तेज चलेंगे तो जल्दी पहुँच जाएँगे।

तीन-चार मील के लिए क्या सवारी लेना? चलना व्यायाम भी तो है। कितनी बार तो लोग बस बदलते रह जाते हैं, और आप पैदल उनसे जल्दी पहुँच जाते हैं। 

बाल महीने में दो बार कटाएँ, और दाढ़ी-मूँछ खुद बनाएँ।  पीयर्स का एक साबुन साढ़े तीन डाइम का मिलेगा, जो महीना चल जाएगा। दंतमंजन में एक पेनी प्रति हफ्ता लगता है, लेकिन दुकानों में एक सस्ता चॉक पाउडर मिलता है जो ज्यादा चलता है और बढ़िया दाँत माँजता है।

ठंड में अलाव के लिए कोयले का खर्च लगता है। लेकिन पुस्तकालय जाकर पढ़ने से यह खर्च बच जाएगा। जिसे घर में ही पढ़ना है, उसे एक शिलिंग प्रति हफ्ता लग जाएगा। 

सब जोड़-जाड़ कर नौ शिलिंग भोजन के लिए बच गए।

मैं तो कहता हूँ, हर जगह पैसा बचाना चाहिए, लेकिन भोजन पूरा करना चाहिए। जितना पैदल चल कर टिकट के पैसे बचाए, उतने का भोजन कर लिया। यही सही उपयोग है। लेकिन यह ध्यान रहे कि हम विद्यार्थी हैं। हमें जीने के लिए खाना है, खाने के लिए जीना नहीं है।

एक डॉ. निकोल्स की किताब है- ‘छह पेनी में कैसे रहें’। ऐसी किताबें हर विद्यार्थी को पढ़ना चाहिए। मैंने एक पुस्तक पढ़ी- ‘एक पाउंड प्रति हफ्ते में कैसे जीएँ’, और यह मुमकिन भी किया। विद्यार्थी जीवन में खर्च बचा कर हम परिवार पर बोझ घटाते हैं। लेकिन, भारतीय पैसा बचाने में कमजोर हैं, और ऐसी किताबें ब्रिटिश ही लिखते हैं।

वे पैसे बचा कर अमीर बनते हैं, हम उड़ा कर गरीब।

लेकिन मैं एक पंजाबी बैरिस्टर को जानता हूँ, जो बचा कर पैसे घर भी भेजता था, और वह मात्र पौने पाउंड प्रति हफ्ते में घर चलाता था। ऐसे भारतीय भी हैं।

गुजरात के साधु नारायण रामचंद्र भी एक पाउंड में खर्च निकालते थे। गुजराती पैसे की कीमत समझते हैं, यह मेरा अनुमान है। आपको मेरी बात पर भरोसा हो, इसलिए इनकी चिट्ठियाँ संलग्न कर रहा हूँ। आपको चाय, कॉफी, तंबाकू, शराब और माँस से दूर रहना होगा। तभी पैसे बचेंगे। आपको लोग ठगेंगे कि इनके बिना लंदन की ठंड में जीना संभव नहीं। यह बकवास है। लेकिन अगर चाय पीनी ही हो, तो घर की बनी पीएँ और दूध की जगह पाउडर डालें। सस्ती पड़ेगी।

तंबाकू तो खैर बहुत मँहगी है। एक मित्र ने मात्र तंबाकू पर तीस पाउंड खर्च किए। सस्ते भी विकल्प हैं। एक पेनी की पाँच घटिया सिगरेट भी मिलती है। उसमें तंबाकू तो क्या, मुझे लगता है कि राख होगा या पत्तागोभी का चूरन पिला देते होंगे। अगर पैसे बचाने हैं और स्वस्थ रहना है तो तंबाकू से तौबा करिए। सिगरेट वालों के साथ यह भी समस्या है कि उनको ट्रेन में अलग जाकर पीना होता है, घरों की सीढ़ीयों पर, रेस्तराँ के एक हिस्से में। वह सबके साथ नहीं रह सकते।

क्या खाए-पीयें?

यह भ्रम फैलाया गया है कि लंदन में शराब पीना ही होगा। मैं कई सांसदों को जानता हूँ जो शराब नहीं छूते। बल्कि ऐसे सांसदों का एक गुट है। अगर यह बात सच होती कि शराब के बिना जीना मुश्किल है, तो क्या ब्रिटिश सरकार मुफ्त शराब की व्यवस्था न करती? 

आप यह गाइड पढ़ने के साथ प्रण करें कि लंदन में शराब और तंबाकू सेवन नहीं करेंगे।

अब माँस पर आता हूँ। विद्यार्थियों को अगर धन बचाना है, तो माँस से दूर रहें। कोई पूछेगा कि मुस्लिम और पारसी कैसे जी पाएँगे? उनके लिए गाइड का यह हिस्सा बेकार है। लेकिन आप बताइए कि क्या भारत में ऐसे गरीब मुसलमान और पारसी नहीं, जिन्हें महीनों तक माँस का टुकड़ा नहीं नसीब होता। आपको माँस खाने की धार्मिक स्वतंत्रता है, लेकिन लंदन में शाकाहार कर पैसे भी बचा सकते हैं और शाकाहार के फायदों से भी रु-ब-रु होंगे। इंग्लैंड के ईसाई भी शाकाहार अपना रहे हैं। लॉर्ड हान्नेन और गॉट्लिंग जैसे लोग भी। महान कवि शेली भी। लेकिन, यह निजी चयन है।

डॉ. एन्ना किंग्सफोर्ड ने लिखा है कि उन्हें तपेदिक रोग हुआ, डॉक्टरों ने कहा कि छह महीने जी पाऊँगी। मैंने माँस और शराब त्याग दिया और शहर से दूर चली गयी। मेरा तपेदिक ठीक हो गया। आप एच.एस. साल्ट की शाकाहार पर पुस्तक भी पढ़ कर देखें। बेंजामिन रिचर्डसन ने शाकाहार के वैज्ञानिक पक्ष पर बिंदुवार लिखा है और माँसाहार से पौष्टिक तत्वों की तुलना की है। यह उन भ्रमों का खंडन करता है कि लंदन में माँस खाना जरूरी है। 

एक शाकाहारी सूप तीन डाइम का है, तो माँसाहारी नौ डाइम का। मटन चॉप का दाम वेज चॉप से तीन गुना है। सस्ते बूचड़खाने भी हैं, लेकिन उनके माँस से बीमारियाँ ही मिलेगी। मुझे आज तक कोई नहीं मिला जो माँसाहार करता हो, और सस्ते में विद्यार्थी जीवन जी रहा हो। अंडे सस्ते हैं और ब्रिटिश शाकाहारी खाते भी हैं, लेकिन भारतीय शाकाहार में अंडा वर्जित है।

कुछ हिन्दू धार्मिक कारणों से ईसाईयों का बनाया नहीं खाते। दरअसल इस बहाने उनके पैसे भी बच जाते हैं क्योंकि खुद का बनाया सस्ता होता है। कुछ हिन्दू खाते वक्त ऊपर के वस्त्र उतार देते हैं। लंदन की ठंड में यह कठिन लगता है। लेकिन मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि अगर आप इंतजामात कर लें तो ऐसा कोई हिन्दू कर्म नहीं जो आप लंदन में नहीं कर सकते। लेकिन, मुझे एक योगी ने कहा कि जहाज पर सफर और लंदन में कुछ पूजा-पाठ और नित्य-कर्म छूट ही जाते हैं। यह भी ध्यान रहे कि विद्यार्थी का केंद्र शिक्षा है, और वह विदेश में धर्म-कर्म में कुछ सहजता लाने के लिए क्षम्य है।

हालांकि, मेरा निजी विचार है कि अगर जात-पात को नहीं मानते, तो कुछ खुद बना लें और कुछ ईसाईयों का बनाया रेडीमेड भी खाएँ। मकान-मालकिन को भारतीय पाक-पद्धति सिखा दें, तो वह ठीक-ठाक और पवित्र भोजन बना देती हैं। 

 

गांधी स्वयं लंदन कैसे पहुँचे? Click here to read about Gandhi’s travelogue

 

Author Praveen Jha translates a part of London guide written by Mohandas K Gandhi for students wishing to study abroad.

 

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