सन् 1947 भारतीय इतिहास का पटाक्षेप तो था ही, हिन्दी फ़िल्म संगीत का भी पटाक्षेप था। आप अगर ‘47 से पूर्व और उसके बाद के गीतों को सुने तो आपको बदलते सुर स्पष्ट नजर आएँगे। के. एल. सहगल की मृत्यु, नूरजहाँ का पाकिस्तान जाना और शमशाद बेग़म की आवाज का मद्धिम पड़ना; जैसे एक सूर्य का अस्त हो रहा हो, एक नए सवेरे के लिए। अंग्रेज़ों के जाने के बाद जो उन्मुक्त ध्वनि प्रवाहित हुई, उसकी वाहक बनी लता मंगेशकर। यह खुले गले की आवाज परंपरा से हट कर थी, जैसे बेड़ियाँ टूट गयी हो। यतींद्र मिश्र अपनी पुस्तक ‘लता सुर गाथा’ में लिखते हैं कि ‘हवा में उड़ता जाए मेरा लाल दुपट्टा मलमल का’ (बरसात, 1949) गीत फ़िल्म संगीत को नए क्षितिज की ओर उड़ा ले जाता है, जो अभी तक भारी-भरकम आवाज़ों की घूँघट में पल रहा था। यह कहा जा सकता है कि संगीत को ‘सुगम’ लता जी की आवाज ने ही बनाया। सुगम का अर्थ यहाँ आसान से नहीं, उसके लचीलेपन और फलक के विस्तृत होने का है। खुले शब्दों में कहा जाए तो जितनी शक्ल लता जी की आवाज की दी जा सकती थी, उतनी शमशाद बेग़म, जोहराबाई अम्बालेवाली, या सुरैया की आवाज को भी देना कठिन था। पहले गायिका की आवाज के हिसाब से सिचुएशन बनाए जाते थे, अब किसी भी सिचुएशन पर लता जी के स्वर को सेट किया जा सकता था। शायद ही कोई रस हो, कोई कथानक हो, कोई पात्र हो, कोई कालखंड हो, या कोई संगीतकार हो, जहाँ तक लता जी की आवाज न पहुँची हो।
और यह सार्वभौमिकता यूँ ही नहीं आई। उनके पहले सफल गीत ‘आएगा आने वाला’ (महल, 1949) को ही सुनकर जद्दन बाई (नरगिस की माँ) ने दाद दी थी कि एक मराठी गायिका होकर ऊर्दू में ‘बग़ैर’ का ऐसा तलफ़्फुज़ हर किसी का नहीं होता। और यही बात उनके गाए भोजपुरी गीत ‘जा जा रे सुगना जा रे’ (लागी नहीं छूटे रामा, 1963) के लिए भी कही जा सकती है। उनकी आवाज जल की तरह पात्र का आकार ले लेती। शायद यही वजह रही कि जहाँ अभिनेताओं में हर किसी के लिए अलग गायक थे, जैसे राज कपूर के लिए मुकेश; अभिनेत्रियों में चाहे नरगिस हों, मीना कुमारी या मधुबाला, गायिका लता ही रहेंगी। और श्रोताओं को भी अटपटा नहीं लता, क्योंकि लता जी पात्र के अनुसार सूक्ष्म स्तर पर अपना स्वरमान और अंदाज भी बदल लेतीं। जैसे उनके प्रिय क्रिकेटर सचिन तेंदुलकर उनकी तरह पिच के हिसाब से अपने पैर और खेलने का ढंग बदलते रहे।
ऐसी आवाज को लोग ईश्वर-प्रदत्त या अलौकिक कहते रहे हैं, जो अपनी जगह ठीक भी है; लेकिन, दूसरी लता मंगेशकर का आना तब तक असंभव है जब तक कि उनकी तैयारी को न समझा जाए। लता जी के गीतों में एक सतत और सकारात्मक परिवर्तन नजर आता है। जैसे एक कालबिंदु पर गाया जा रहा गीत, पिछले सभी गीतों का योगफल हो। तभी बिस्मिल्लाह ख़ान और बड़े ग़ुलाम ख़ान सरीखे कहते रहे कि वह कभी बेसुरी नहीं होती। हिंदुस्तानी संगीत में रियाज की परंपरा रही है, लेकिन फ़िल्मी संगीत में ऐसी कोई गुरु-शिष्य परंपरा तो रही नहीं। और लता जी इतनी कम उम्र में इस क्षेत्र में आ गयीं, कि वह किसी गुरु के साथ लंबे समय तक जुड़ी भी न रह सकी। तो आखिर यह कैसे मुमकिन हुआ?
संभवत: इसके तीन आयाम होंगे- प्रयोगधर्मिता, अनुशासन और आजीवन सीखने की इच्छा। अपने पिता की गोद में उन्होंने जीवन का पहला राग पूरिया धनाश्री सीखा, फ़िल्मी दुनिया में आने के बाद भी बंबई के भिंडीबाज़ार घराने के उस्ताद अमान अली ख़ान से गंडा बँधवा कर राग हंसध्वनि में ‘लागी लगन सखी पति संग’ सीखा, अनिल विश्वास जी से ताल और लय की बारीकियाँ सीखी, तो संगीतकार रोशन से शास्त्रीय संगीत की महीन बातें। मीरा के भजन भी गाए, और ‘दर्द से मेरा दामन भर दे’ जैसे ग़जल भी। उनका गाया असमिया गीत ‘जानाकोरे राति’ सुन कर आप असम पहुँच जाते हैं, वहीं इलायराजा के गीत ‘वलइयोसइ’ (सत्या, 1988) सुन कर चेन्नई। तो इसमें अलौकिकता से इतर वैज्ञानिकता भी है कि उन्होंने स्वयं को सर्वग्राह्य बनाया, और ऐसा ही प्रयास फनकारों और अध्येताओं को करना चाहिए। अनुशासन की डोर से बँधे भी रहें, और अपनी सोच में उन्मुक्त भी।
एक गुलज़ार साहब का संस्मरण पढ़ा कि वाक्य था ‘सरौली सी मीठी लागे’, और लता जी को सरौली का अर्थ नहीं मालूम था। उन्हें जब बताया कि यह एक आम है, तो वह पूछ बैठी कि यह आम कितना मीठा होता है? दरअसल, उस गीत के लिए उन्हें अपनी आवाज में भी उतनी ही मिठास लानी थी, जितनी उस सरौली आम में थी।
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