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मेरे पास बाइबल और कुरान मुफ्त में ही कई बार आ गए। एक तो नीले आकर्षक आवरण में इसी महीने मिला। लेकिन बौद्ध धर्म के सूत्र सहजता से हाथ नहीं आ रहे। मैं कुशालनगर के बौद्ध मठ में सबसे करीब पहुँचा, मगर हाथ कुछ न आया। मैंने सुना कि लद्दाख में जो पिछले रिमपोचे थे, उन्होंने तीन महीने तक लगातार बुद्ध और बोधिसत्वों की संपूर्ण शिक्षा का रिवीज़न कोर्स कराया था, मगर वहाँ आंडु-पांडु लोगों या मसखरी करते लोगों का प्रवेश नहीं था। घंटे-घंटे भर शांति से सुनना पड़ता था। शांति स्तूप में भी गाइड पूछा तो कहा कि गाइड नहीं है, ऊपर गया तो देखा कि जर्मन जत्थे को उनका गाइड समझा रहा है। शायद वे बाहर से टूर पैकेज में गाइड नत्थी कर लाए होंगे।
‘आपलोग भी यह जापानी स्तूप जाते हैं क्या? मुझे तो एक स्थानीय व्यक्ति नहीं दिखे जो पूजा करने आए हों।’
‘नहीं। स्तूप नहीं जाता है। आप देखेगा पूरा लद्दाख में लाइन से स्तूप ही स्तूप है। वाइट कलर का। उसको टच करने का नहीं। वो हमारे जो खानदान का बुद्धिस्ट लोग था, वो सब घूमते हुए बनाते गया। सिम्बॉल जैसे। हमलोग तो गाँव का मोनास्ट्री जाता है’, मेरे चालक ने कहा
जब मैं लद्दाख घूमने निकला तो वाकई सड़क किनारे पंक्तिबद्ध, दूर टीलों पर किसी मील के पत्थर की तरह बने, किसी अदृश्य ऐतिहासिक पथ को दिखाते छोटे और मझोले साइज की सफ़ेद आकृतियाँ दिखने लगी। मुझे दूर से लगा उनके अंदर एक छोटी मूर्ति, कोई कक्ष या कुछ भी दिशा-निर्देशक होगा। मगर कुछ नहीं। ऐसा लग रहा था, जैसे हम कभी वीरान पहाड़ों पर ट्रेक करने जाते हैं तो पत्थर पर पत्थर जोड़ कर एक निशानी बना जाते हैं, कुछ इसी तरह वे इन स्तूपों को बनाते चले आ रहे हैं। संभव है किसी संन्यासी की अगर मृत्यु हो जाती हो, तो वहाँ भी स्तूप बन जाता हो।
लेकिन ये कयास हैं। मुझे उत्तर किताबों में मिल जाएँगे। पढ़े भी हैं। मगर सहजता से कोई बता नहीं रहा। कोई बौद्ध संत सड़क पर खड़े होकर किताब नहीं बाँट रहे, कोई ज्ञान नहीं दे रहे। सभी चुप हैं, और उनके चेहरे, उनकी आँखें भी चुप हैं। आपमें शक्ति है तो इस सन्नाटे की गूंज सुन लें, या सम्मोहित होकर स्वयं सर मुंडा लें, बौद्ध वस्त्र धारण कर मठ में बैठ जाएँ। ऐसे ही एक व्यक्ति भीमराव अम्बेडकर के नाम पर बीच लेह में पहली मंजिल पर एक सार्वजनिक पुस्तकालय है। वह भारत के सबसे पढ़ाकू मनीषियों में थे, जिनको सम्मोहित करने में गांधी भी नाकाम रहे। लेकिन उनको बौद्ध ने सम्मोहित कर लिया! वे खुद तो बने ही, उन्होंने हज़ारों दलितों को एक साथ बौद्ध बनने का आह्वान किया।
यह धर्मांतरण की रिवर्स मार्केटिंग स्ट्रेटेजी लगती है, जिसमें आप न कुछ बेचते हैं, न प्रचार करते हैं। आप एक ऐसा रहस्यमय पिटारा तैयार करते हैं, कि लोग खुद ही ट्रेल के पीछे-पीछे चले आते हैं। उनका झट स्वागत, पट परिवर्तन नहीं किया जाता। बहुत ना-नुकर, वचन-प्रतिज्ञा, तप-जप, शिक्षा-दीक्षा, त्याग-बलिदान के बाद ही कोई बौद्ध बन पाता है। जब वे आखिर कहते हैं- बुद्धम शरणम गच्छामि, धम्मम शरणम गच्छामि, संघम शरणम गच्छामि।
तांत्रिक तिब्बत
मैं ‘तांत्रिक तिब्बत’ नामक दुकान में पहुँचा, तो अंदर एक बेंच थी, जिस पर एक बौद्ध भिक्षु और दो अन्य बैठे थे। जगह कम थी, तो मैं अंदर जाने के बजाय बाहर ही टहलने लगा। वे नहीं निकले, तो ठीक सामने एक सार्वजनिक बेंच पर बैठ इंतज़ार करने लगा। शीशे से झाँकने पर इसके अंदर कुछ खोपड़ियाँ, कांसे या पीतल की मूर्तियाँ और कई पुरानी जंग लगी चीजें दिख रही थी। बाकी दुकानों में लंबी भीड़ थी, मगर यहाँ कोई नहीं आ रहा था। तभी देखा कि कुछ विदेशी आए, और उस कम जगह में ही घुस कर बतियाने लगे। अब क्या लेन-देन हुई, यह नहीं देख सका, मगर मैं सम्मोहित तो हो रहा था कि कुछ है।
विदेशियों के जाने के बाद मैं भी अंदर घुस गया। बौद्ध भिक्षु और दो लोग अब भी बैठे थे। वे दो लोग एक मोबाइल में तस्वीर दिखा रहे थे, जिसमें एक काले रंग की कुछ लंबी ताबीज़ जैसी चीज थी। वह कह रहे थे कि इसमें घोड़े के नाल और खुर के अंश का प्रयोग होता है।
दुकानदार उसे देख कर कह रहे थे, ‘यह अब मिलना मुश्किल है। नाल तो ढेरों मिल जाएगी, मगर इसके साथ जो पट्टी लगी है वह चमड़ा अब नहीं मिलता। बिना उस चमड़े के नाल बेकार है’
बौद्ध भिक्षु भी साथ बैठे तस्वीर देख रहे थे, मगर कुछ कह नहीं रहे थे। वह एक कांसे की मूर्ति को बैठे-बैठे हल्का घिस रहे थे। दुकान में कुछ उर्दू या अरबी में लिखे पोस्टर थे, जिससे लग रहा था कि दुकानदार मुसलमान हैं। बाद में उनके नाम से संबोधित किया गया तो स्पष्ट हो गया। लगभग पाँच मिनट तक उन्होंने जब मुझे पूरी तरह इग्नोर कर दिया, तो मैंने खखस कर कहा,
‘यहाँ सिर्फ़ तंत्र-मंत्र की चीजें हैं?’
उन्होंने पूछा, ‘आप भी करते हैं?’
मैंने कहा, ‘अब तो नहीं। मेरे पूर्वजों की रुचि थी बिहार में’
‘हाँ हाँ! बिहार-बंगाल तो बहुत बड़े सेंटर रहे हैं। आप लगता है तारो को ढूँढ रहे हैं’
‘हाँ। तारा की तिब्बती प्रतिमा। आपको कैसे पता? क्या आपके पास है?’
वह मुस्कुरा दिए।
‘यह ग्रीन तारो है, आप शायद वाइट तारो की पूजा करते होंगे?’, ‘तांत्रिक तिब्बत’ के दुकानदार ने कहा
‘मैं तो खैर उग्रतारा की पूजा करता हूँ, जो मिथिला में प्रचलित हैं। यह वाइट और ग्रीन मुझे ठीक-ठीक मालूम नहीं। सुना ज़रूर है तिब्बती तारा विषय में कि उनके कई रूप पूजे जाते हैं’, मैंने कहा
‘असल में वाइट और ग्रीन तारो ही है। सफ़ेद तारो के हाथ में खुला हुआ लोटस है, और वह पद्मासन में बैठी रहती है। उनका तीसरा आँख भी है। ग्रीन तारो के हाथ में बंद लोटस है, उनका एक पैर हैंगिंग रहता है…जैसे इसमें देखिए’, उन्होंने कहा
मुसलमान होने के बावजूद व्यापारी रूप में बौद्ध तंत्र की उनकी समझ ठीक-ठाक थी। इससे पहले भी मैंने कुछ मूर्तियाँ देखी थी, मगर यह कांसे की बनी मूर्ति थी, नक्काशी पुरानी और बेहतर थी। मुझे यह भी शुबहा हो रहा था कि इसके बेस पर कुछ चिपका हुआ था, जो उखड़ गया है।
मैंने पूछा, ‘इस मूर्ति की कीमत बताएँ और ख़ासियत बताएँ, क्योंकि मैंने इससे बेहतर पॉलिश वाली मूर्तियाँ देख रखी है’
‘यह नौ हज़ार पाँच सौ की मिलेगी। बाकी दुकानों से कहीं महंगी। वजह ये कि सीधे तिब्बत से आयी है, लोकल नहीं है’
‘सीधे तिब्बत से? स्मगल होकर?’
वह फिर मुस्कुराने लगे, और मूर्ति मेरे हाथ से लेकर उसकी पीठ में कुछ काले निशान दिखाने लगे। कहा कि यह कहीं और नहीं मिलेगा।
खैर, मैं तो संग्रह के मामले में ऐसा व्यक्ति हूँ कि न्यूनतम चीजें रखता हूँ। बस एक बड़े झोले या तीस किलो के बैग जितना सामान हो; उससे ज्यादा जो भी हो, उसे डिस्पोज करता चलूँ। किताबें भी रद्दी बाज़ार में जमा कर आता हूँ, दुर्लभ मूर्तियाँ कहाँ जमा करता फिरूँ?
मैंने लौट कर एक स्थानीय व्यक्ति से बात की। पूछा कि इन मूर्तियों का क्या माज़रा है? क्या इसकी तस्करी चल रही है?
उन्होंने कहा, ‘लद्दाख के लोग तो सीधे-साधे हैं। उनसे तस्करी मुश्किल है। लेकिन तिब्बती शरणार्थी कैंप और बढ़ते पर्यटकों के साथ कुछ असली-नकली का चक्कर यहाँ भी आ गया है’
‘क्या तिब्बती शरणार्थी कैंप में नकली लोग हैं?’
‘कैंप में नहीं, कैंप का जो बाज़ार होता है वहाँ सभी तरह के लोग हैं’
‘यानी वे तिब्बत से मूर्तियाँ चुरा कर ला रहे हैं?’
‘मालूम नहीं’
मुझे संतोषप्रद उत्तर नहीं मिला, तो एक पान की दुकान ढूँढने निकल गया। पता नहीं क्या चुहल हुई कि लद्दाख में पान खाया जाए। तीन दिशाओं में गया, कुछ लोगों से पूछा; पान की दुकान तो मिली नहीं, किताब की दुकान मिल गयी। वहाँ जर्मन, अंग्रेज़ी और तिब्बती में सिर्फ़ लद्दाख़ पर किताबें थी। एक डैन ब्राउन की नयी किताब अपवाद थी। आखिर एक खाँटी लद्दाखी व्यक्ति नवांग ज़ेरिंग शाक्सपो की किताब हाथ लगी।
उस किताब को पलटते हुए पृ 93 पर लिखा मिला,
‘पर्यटन के खुलने के बाद से ही मूर्तियों की चोरी शुरू हो गयी। कुछ भ्रष्ट लोगों ने लद्दाख के गोंपा (बौद्धमठ) से मूर्तियाँ गायब करनी शुरू कर दी। आखिर 25 जून 1984 को दुकानदारों से यह समझौता हुआ कि कोई भी व्यक्ति लद्दाख में बौद्ध मूर्तियों या ग्रंथों की बिक्री नहीं करेगा’
वह आगे लिखते हैं कि समझौते की अनदेखी होती रही और मूर्तियाँ गायब होती रही। आज लद्दाख में धड़ल्ले मूर्तियाँ बेची जा रही है। भला आप कैसे रोक लगाएँगे? देश-विदेश के पर्यटक यही खरीदने तो आते हैं।
इस विषय पर मुझे दोरजी साहब ने एक बात कही थी, ‘लद्दाख में भूटान पर्यटन मॉडल लाना चाहिए। वहाँ हर बिक्री नियंत्रित है। हर चीज का रेट फिक्स है। यहाँ तो यह हाल है कि लोग पाँच हज़ार रुपए में -30 डिग्री पर चार हज़ार मीटर ऊँचाई पर ट्रेकिंग करा रहे हैं, और खाने को दे रहे हैं मैगी!
इतनी गला-काट प्रतियोगिता है कि वे भी क्या करें? वे डील नहीं देंगे तो कोई और मैगी डील दे देगा। आप तो डॉक्टर हैं, जानते होंगे कि प्रोटीन की ज़रूरत है, मिनरल की ज़रूरत है, मैगी खाकर पहाड़ चढ़ते हैं क्या?’

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लद्दाख में है आदर्श गाँव?
मेघालय की तरह लद्दाख में भी एक आदर्श ग्राम मिला, जिसके प्रवेश सड़क पर ही ‘मॉडल विलेज’ की पट्टिका लगी थी। किंतु यह मॉडल तो क़तई नहीं था। अति-पर्यटन की वजह से सड़क पूरी तरह टूट कर धँस चुकी थी, और गाँव का चौराहा गाड़ियों से ब्लॉक हो चुका था।
इससे कहीं बेहतर लद्दाख के वे गाँव लगे, जिनके नाम की पट्टी सड़क पर लगी रहती, मगर गाँव नहीं दिखती। ग़ौर करने पर एक पतली कच्ची सड़क नीचे घाटी में उतरती दिखती। उस पगडंडी पर लिखा होता कि गाँव चार किलोमीटर पर है। जब हम वहाँ पहुँचते तो मरुभूमि में उपवन की तरह अचानक एप्रीकोट से लदे पेड़, छोटे बाँस जैसे पौधे, शलजम आदि दिखने लगते। उनके घरों की छत पर हरी घास काट कर रखी होती।
‘यह हरी घास छत पर उगाने का सिस्टम नॉर्वे में भी है। इससे घर ठंड में गरम और गर्मी में ठंडे रहते हैं’, मैंने कहा
‘नहीं, नहीं सरजी। ये तो गर्मी में घास काट कर ऊपर रखा है। जब ठंडा होगा तो जानवर को खिलाने के लिए’, मेरे गाड़ी चालक ने कहा
‘अच्छा। पुआल की तरह। और ये एप्रीकोट? बस यही फल है? अनाज, आलू?’
‘अभी तो लद्दाख धीरे-धीरे 100 परसेंट अपना सब्जी उगाने लगा है सरजी। ग्रीनहाउस लगा के। ऊपर जो पहाड़ से बर्फ़ मेल्ट होकर आता है, उसका पानी का पाइप लग गया (सिंचाई के लिए)। अभी आलू, गोबी, टमाटर, सब इधर ही होगा। कुछ बाहर से नहीं मंगाएगा’
‘ठंड में क्या करेंगे आप?’, मैंने पूछा
‘इंडियन आर्मी इधर बड़ा-बड़ा कोल्ड स्टोरेज बनाया है। उनको कारगिल, सियाचिन, सब बॉर्डर के लिए सप्लाइ चाहिए। हमारा भी सब्जी उधर ही स्टोर हो रहा है। इधर का खेती से उनका भी सप्लाइ अच्छा होगा न सरजी’
यह एक अलग ही पहलू है। लद्दाख भारतीय सेना की एक विशाल छावनी नज़र आती है। हर जगह सेना की ट्रकें, रैपलिंग करते, दौड़ लगाते, या कोई कार्यक्रम करते फौजी दिख जाएँगे। यहाँ की सभी मुख्य सड़कें ‘प्रोजेक्ट विजयक’ ने बनायी या मेन्टेन कर रही है, जो सेना की सीमा सड़क संगठन संभालती है।
इन सड़कों के लिए भारतीय सेना की इंजीनियर विंग का धन्यवाद देना चाहिए, जो कठिन पहाड़ों, ग्लेशियरों और दर्रों से रास्ते बना रही है।
सड़क के हर आधे किलोमीटर पर आपको एक नारा मिल जाएगा। जैसे- ‘कारगिल से कन्याकुमारी- भारत एक है’, ‘नुब्रा से निकोबार- भारत एक है’। आप जोश में एक्सीलरेटर पर पाँव देंगे, तो अगला नारा मिलेगा- ‘घाटी का आनंद लें, स्पीड का नहीं’ या ‘डॉन्ट बी अ गामा, इन लैंड ऑफ लामा’। यूँ लगता है जैसे हम भी सेना के किसी ऑपरेशन में हैं, और कदम-कदम पर निर्देश मिल रहे हैं।
एक स्थान पर सेना की भारी-भरकम वाहनों का क़ाफ़िला आ रहा था, और हमारी गाड़ी रोक दी गयी थी ताकि वे सुविधा से दायें छावनी की ओर जा सकें। हमारी गाड़ी के ठीक सामने एक जवान यह प्रक्रिया करवा रहे थे। वह गाड़ी को दायें हाथ दिखाते, कदम की थाप के साथ एक सैल्यूट मारते, फिर अगली गाड़ी आती। दो-तीन गाड़ियाँ निकलने के बाद चौथी गाड़ी में मेरा भी हाथ स्वतः सैल्यूट मुद्रा में चला गया।
‘ये लोग सब सियाचिन जाएँगे सरजी। अभी आगे सप्लाइ के लिए एक बार रुकेंगे बस। ये सियाचिन वारियर्स हैं’, मेरे चालक ने कहा
उनकी चर्चा मैं आगे कुछ विस्तार से करुँगा। फ़िलहाल तो मैं वापस उस आदर्श ग्राम अलची में लौटता हूँ, जहाँ से यह बात निकली थी। अलची गाँव में एक प्राचीन बौद्ध मठ है। लगभग हज़ार वर्ष पुराना। बल्कि अगर यह जानना है कि लद्दाख-तिब्बत में बौद्ध आए कैसे, तो यह गाँव एक अच्छी शुरुआत है। मठ का द्वार उस वक्त बंद था। शायद उनका भी लंच-टाइम होता हो, मैं भी भोजन के लिए एक ठौर देखने लगा। यूँ तो कई थे, मगर एक बाँस की बनी रसोई पर ध्यान गया जिसे चार-पाँच महिलाएँ चला रही थी और अंदर कुछ विदेशी बैठे थे।
मैंने पूछा- ‘मोमो?’
उनकी सबसे वरिष्ठ और अतिव्यस्त महिला ने कहा, ‘मोक-मोक है’
‘वह मोमो ही है?’
‘मोमो आपलोग बोलता है। मोक-मोक इज रियल नेम। मटन का। मोक-मोक मटन का ही होता है’
‘होता तो कई चीजों का है’, मैंने कहा
‘दैट्स नॉट मोक-मोक। लोग तो कुछ भी बना लेता है’, उन्होंने अकड़ कर कहा
मैंने मन ही मन तंज कसा कि यह कोई लद्दाखी अस्मिता की झंडाबरदार लगती है। ऑर्डर देकर खाने बैठा तो देखा उन महिला की तस्वीर देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद दोनों के साथ थी। साथ ही स्मृति ईरानी के साथ ‘नारी शक्ति पुरस्कार’ का प्रमाणपत्र लिए फोटो थी। मैंने सोचा कि इस गाँव में मामूली रसोई चलाने वाली में ऐसा क्या है?
वह महिला भागती हुई स्वयं ऑर्डर लेती जा रही थी, कभी गैस के चार चूल्हों में एक पर करछुल चला आती, कभी एप्रिकोट का जूस बनाने लगती। हिसाब-किताब करती, बिल बनाती। सामने लद्दाख फ़ूड फ़ेस्टिवल का पोस्टर लगा था, जिसे वह स्वयं ऑर्गेनाइज करने वाली हैं। एक पोस्टर यह लगा था कि उनकी कमाई का पाँच प्रतिशत विकलांगों को जाएगा। एक तस्वीर स्कूल की लगी थी, जिसमें वह कोई भाषण दे रही थी या उद्घाटन कर रही थी।
जब वह भोजन लेकर मेरी तरफ़ बढ़ने लगी, मैं स्वतः उठ कर खड़ा हो गया। सैल्यूट तो नहीं किया, मगर आगे बढ़ कर उनके हाथ से थाल ले ली। उनका नाम था- निल्जा वांग्मो।

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In this part of Ladakh travelogue, Author Praveen Jha narrates about the smuggling from Tibet and an ideal village.
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