लद्दाख 7- सत्तू, पट्टू और टट्टू

Ladakh Part 7
लद्दाख के लोग सदियों से सत्तू खाते रहे हैं, जिसके पीछे वहाँ की जलवायु और जीवनशैली का रोल है। पेरिस सिन्ड्रोम, भगा कर शादी, और मैगनेटिक हिल के अंधविश्वास की बात इस खंड में

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1
लद्दाखी खाते हैं सत्तू, पहनते हैं पट्टू, चढ़ते हैं टट्टू

– एक कश्मीरी कहावत

‘लद्दाख अब बदल गया है। 1962 तक यह बाकी भारत से पूरी तरह अलग था। श्रीनगर-लेह के बीच कोई पक्का रास्ता नहीं था। यह तो चाइना वार हुआ और सेना को दिक़्क़तें आयी, तब जाकर 1963 में कनेक्टिविटी बनी। उससे पहले लेह के लोग पंद्रह दिन पैदल और टट्टू पर चढ़ कर श्रीनगर पहुँचते थे। वह भी पहाड़ों और दर्रों को पास कर’, मि. दोरजी ने समझाया

’अच्छा? अब बदल गया है से आपका मतलब अच्छा बदलाव है। सड़कों का बनना’

‘अच्छा भी। बुरा भी। कनेक्टिविटी तो अच्छी चीज है। लेकिन, इस कारण संस्कृति भी बदलने लगी’

‘जैसे?’

‘जैसे अब लद्दाख में लोकगीतों के बजाय एफ एम रेडियो पर बॉलीवुड बजता है। हमारे पुराने इंस्ट्रुमेंट जैसे दामन और सूर कम लोग बजाते हैं। पहले हर गाँव में एक मोन परिवार होता था, जिसका काम ही विभिन्न अवसरों पर गाना-बजाना था। अब नहीं मिलते’

‘यह तो पूरे भारत में ही हुआ है’

‘खान-पान, रहने का ढंग भी बदला है। पहले के लोग एक ड्रिंक पीते थे- छाँग। यह लद्दाख स्पेशल था, और लेह बाज़ार से लेकर गाँव-गाँव में मिलता था। अब सिर्फ़ ख़ास अवसरों पर मिलता है। मोनास्ट्री में अब भी थोड़ा छाँग यूज होता है’

‘यह क्या था? ताड़ी जैसा कुछ?’

‘हाँ। लोकल बीयर जैसा। गेहूँ का बनता था’

‘अच्छा। मैंने सुना है कि सिल्क रूट में ड्राइ फ्रूट्स भी खूब चलता था’

‘वह अभी भी है। यहाँ कुछ भी सूखा मिल जाएगा। एप्रिकोट, सेब, कीवी, सभी तरह के फल। विंटर के लिए खाना इसी तरह बचा कर रखते हैं’

‘लंबी यात्रा में भी आसान रहता होगा कि पोटली बाँध ली’

‘उसमें सत्तू बहुत काम आता है’

‘चने का सत्तू? यहाँ भी? मुझे ड्राइवर भी बता रहे थे’

‘सत्तू तो लद्दाख-तिब्बत का मेन फूड है। चने का नहीं, बार्ली (जौ) और गेहूँ का’

‘वह कैसे बनाते हैं?’

‘पहले गेहूँ को पानी में फुलाते हैं, फिर उसको रोस्ट करते हैं, और पीस लेते हैं’

’यह सत्तू जैसा ही प्रोशेस है। हमलोग सत्यनारायण पूजा में आटा भून कर प्रसाद बनाते हैं, यह कुछ वैसा ही टेक्सचर होगा। मुझे कहाँ मिलेगा?’

‘अरे, आप पहले बताते? मैं गाँव से मंगवा देता। अब यह मार्केट में कम मिलता है। वही बताया न कि कल्चर बदल रहा है। लोग मॉडर्न दिखना चाहते हैं, और सत्तू पब्लिकली कम खरीदते हैं’

‘मैं तो नॉर्वे में सत्तू पीकर ऑफिस जाता हूँ। ख़ास भारत से ले जाता हूँ। आप लद्दाखी सत्तू कहीं से जुगाड़ दें, मैं ले जाऊँगा’

उन्होंने लेह बाज़ार में मुख्य मार्केट के किनारे जमीन पर सूखे फल बेचते लोगों के पास गाड़ी लगायी। वहाँ पुलिस इस तरह पार्क करने से रोकती थी, मगर ऐसा लग रहा था कि पुलिस उन्हें जानती ही है। 

‘मैं तो यहीं पैदा हुआ, लेह बाज़ार में हमलोग खूब खेलते थे। सब जानते हैं। आपको बता रहा हूँ कि मैं इलेक्शन भी लड़ चुका हूँ। (हँस कर) हार गया’, उन्होंने कहा

वह उन ग्रामीण दिख रहे लद्दाखी दुकानदारों से अपनी भाषा में सत्तू के लिए पूछने लगे। मैंने देखा कि वहाँ याक और गाय के दूध तक को सुखा कर, पीस कर एक चीज बेची जा रही थी। खाने में खमीर (yeast) जैसा स्वाद। तमाम सूखे फल और बादाम तो थे ही। मगर सत्तू का कहीं अता-पता न था।

आखिर एक दुकानदार ने लद्दाखी में कहा, ’दस किलो सत्तू है यहीं पास में। मैं लेकर आता हूँ। सौ रुपए किलो। कितने किलो चाहिए?’

उन्होंने कहा, ‘अरे, इतने में तो सोना मिल जाता है’

‘मैं सौ रुपए से एक रुपया कम न लूँगा। आपको मैं क्यों ज्यादा रेट बताऊँगा?’

यह बातचीत समझाते हुए मुझे उन्होंने पूछा कि रेट ठीक है? मैंने कहा कि हाँ! दो किलो दिलवा दीजिए।

आखिर उस लद्दाखी सत्तू की पोटली मेरे साथ बँध गयी। मैंने पूछा- इसे खाऊँगा कैसे?

उन्होंने कहा, ‘आपने तो कहा भगवान का प्रसाद बनाते हैं। बहुत कुछ करते हैं इसका। अभी तो बस हाथ में लीजिए और फाँकिए’

मैंने एक मुट्ठी अपने हाथ में ली, और एक उन्हें दी। लद्दाखी सत्तू खाते हुए मैं अगली यात्रा की ओर बढ़ गया।

2

यात्रा करने में अक्सर हम सबसे लोकप्रिय चीज को प्राथमिकता देते हैं, जो औसत या निरर्थक निकल जाती है। इसे ‘पेरिस सिन्ड्रोम’ कहते हैं, जो जापानी यात्रियों में देखा गया है। वे एफिल टावर की तस्वीरें और मॉडल देख कर पेरिस की टिकट कटाते हैं, और एयरपोर्ट से सीधे एफ़िल टावर पहुँचते हैं। वहाँ जब उन्हें लोहे का ढाँचा, और नीचे बांग्लादेशियों की रेड़ियाँ दिखती है तो सर पकड़ कहते हैं- ‘अरे! यही था एफ़िल टावर!’ अवसाद में घिर कर उनमें से कुछ लोग अस्पताल में एडमिट तक हो जाते हैं।

एफ़िल टावर देखने की चीज तो है ही, मगर फ़्रांस में और भी कई चीजें हैं। मुमकिन है कि हर किसी को इस लोहे के ढाँचे में रुचि न हो। कई लोग ऑरोरा बोरियैलिस (Northern lights) देखने नॉर्वे आते हैं, जिसके महंगे पैकेज होते हैं। उन्होंने इंटरनेट पर रंग-बिरंगी ख़ूबसूरत तस्वीरें देख रखी होती है। जब वह वाकई देखने पहुँचते हैं, तो आसमान में कुछ नहीं दिखता। उन्हें पैकेज टूर वाले शहर से दूर बिल्कुल अंधेरी जगह लेकर जाते हैं, ताकि आसमान में यह दिख सके। वहाँ -30 डिग्री पर बाहर घंटों खड़ा कर देते हैं कि यह आसमानी जादू दिखेगा। जादू तो दिखता है, मगर किसी ख़ास रात को ख़ास समय, और कैमरे में कैद होता है ख़ास शटर स्पीड और एक्सपोजर टाइम के बाद। आधे से अधिक लोग लाखों रुपए खर्च कर, ठंड में ठिठुर कर आ जाते हैं, हाथ कुछ नहीं लगता।

मगर इन घटनाओं से लद्दाख का क्या?

लद्दाख में एक अजूबी चीज है- मैगनेटिक हिल। वह टीवी से लेकर इंटरनेट पर इतनी प्रचारित है कि हर तीसरा लेह उतरते ही जिद करता है- मैगनेटिक हिल ले चलो! उसके विषय में उड़ती अफ़वाह यह है कि वहाँ न्यूटन के नियम फेल हो जाते हैं। गाड़ी अपने-आप सड़क की ढलान के ऊपर चढ़ने लगती है। लोग-बाग इसे भौतिकी का जादू माने बैठे हैं कि पहाड़ों से ऐसा कुछ तिलिस्म खड़ा होता है। कुछ इसे दृष्टिभ्रम मानते हैं।

मैंने जब अपने चालक से कहा तो उन्होंने कहा, ‘अब तो सड़कें इतनी बार मरम्मत हुई कि वहाँ ढलान ही खत्म हो गयी। कुछ देखने लायक नहीं’

फिर भी वह जादुई जगह देखनी तो थी ही। वहाँ दर्जनों गाड़ियाँ पहले से मौजूद थी, और एक बड़ा सा चिप्पीदार बोर्ड लगा था। हमारे चालक ने दो सेकंड गाड़ी बंद की, गाड़ी हल्की हिली। 

उन्होंने कहा, ‘देखिए! गाड़ी अपने-आप ऊपर जा रही है’

मैंने कहा, ‘अब रहने भी दीजिए। मैंने लद्दाख में एक से एक बढ़िया चीजें देखी हैं। इस बकवास को डिफेंड मत कीजिए। कहीं कोई गाड़ी ऊपर नहीं जा रही’

मि. दोरजी ने मुझे बाद में बताया, ‘मैं लद्दाख में पैदा हुआ, दशकों से लोगों को यात्रा करा रहा हूँ, लद्दाख पर एम फिल और पीएचडी की है; मैंने न सिर्फ़ छोटी गाड़ियाँ बल्कि बड़ी लॉरी ले जाकर जाँची है। वहाँ कोई भी उल्टा गुरुत्वाकर्षण नहीं….यह खाली अफ़वाह और बकवास है, जिससे लद्दाख और भारत के साइंटिफिक सोच का नुकसान ही हो रहा है’

मैंने कहा, ‘मैंने तो सुना है कि सेना से जुड़े वैज्ञानिकों ने इसकी जाँच की, और कुछ वैज्ञानिक कारण निकल कर आया’

‘बिल्कुल नहीं। राष्ट्रपति ए पी जे अब्दुल कलाम यहाँ आए, और उन्होंने स्पष्ट ही कहा कि इस स्थान पर कोई भी चुंबकीय तत्व नहीं। यह आश्चर्य है कि उसके बाद भी बोर्ड लगा है, सैकड़ों लोग आकर तस्वीरें खींच रहे हैं, विडियो बना रहे हैं। हमारे लद्दाख में जब कई खूबसूरत सच मौजूद हैं, तो इस फूहड़ झूठ को पालने की क्या ज़रूरत है?’

‘मेरी मानिए तो इस झूठ को पालिए। लोगों को करिश्माई जादू पसंद है। जब इस वजह से टूरिस्ट आ रहे हैं, लद्दाख का राजस्व बढ़ रहा है, तो इस मैग्नेटिक हिल को बने रहने दीजिए। समझिए कि यही इसका चुंबकत्व है कि लोग बेमतलब खिंचे चले आ रहे हैं’

3

उस दिन सुबह योजना बनी कि ऊँचाई देख ली जाए। लद्दाख में दुनिया की सबसे ऊँची वाहन सड़क (motorable road) है। गाड़ी चला कर आप लगभग उस ऊँचाई तक पहुँच सकते हैं, जितना ऊँचा माउंट एवरेस्ट का बेसकैम्प होता है। वह दिन दूर नहीं जब लोग एवरेस्ट की चोटी तक गाड़ी से ही पहुँच जाएँगे, और ऑक्सीजन मास्क लगाए तस्वीरें खिंचवाएँगे।

जब हम निकलने लगे तो हमारे चालक ने हमेशा की तरह आँखें बंद कर अपने हाथ जोड़ किसी शक्ति को प्रणाम किया। सामने डैशबोर्ड पर एक गोल जंतर लटका था, जिस पर एक तरफ़ हरी तारा और दूसरी तरफ़ श्वेत तारा की तस्वीर थी। उन्होंने एक बौद्ध भजन लगाया, जिसमें नियमित अंतराल पर घंटी बजती, और तिब्बती धुन में संस्कृत से मिलते-जुलते मंत्र पढ़े जा रहे थे। पूरी तरह समझ नहीं आया किंतु लगा जैसे ऊँ, नमस्तस्य, नमो शब्द बोले जा रहे हैं।

‘हम रोज सुबह एक घंटा भजन सुन लेता है। हम तो ज्यादा पढ़ा नहीं है, लेकिन मेरा वाइफ़ ट्वेल्थ पास किया सरजी। वह बहुत पूजा करती है। अभी टूरिस्ट सीज़न खत्म होगा, ठंड आएगा, फिर घर बैठ कर बस पूजा करता है हम लोग’, चालक ने कहा

’दलाई लामा से मिलने नहीं गए?’, मैंने पूछा

‘उनसे हमलोग कैसे मिल सकता है? बहुत सेक्योरिटी रहता है। अभी 28 से 30 जुलाई एक फ़ेस्टिवल है, जिसमें दलाई लामा रहेगा। हम सब उधर सुबह पाँच बजे पहुँच जाएगा, और प्रेयर होगा’

‘फिर तुम्हारी कमाई कैसे होगी?’

‘कमाने के लिए तो अभी मेहनत कर रहा है न सरजी। तीन दिन वहाँ रहेगा तो बरकत मिलेगा’

‘अच्छा यह बताइए कि आपकी पत्नी ट्वेल्थ पढ़ गयी, तो आप पीछे कैसे रह गए? यहाँ भी अरेंज मैरेज होती है?’

’अरेंज भी होता है। लव भी होता है। जब दोनों पार्टी मान गया तो शादी हो जाता है’

‘आपने कैसे की?’

‘हम तो उसको एक बहन का पार्टी में मिला। फिर एक-दो बार गाँव जाकर मिला। हम तब भारी लेबर का काम करता था। कमाई कम था। उसका घर में शादी के लिए नहीं माना। हम भगा के अपने गाँव ले आया’

‘भगा कर ले आए? गाँव में? यह कॉमन है?’

‘हाँ! ऐसा तो खूब होता है सरजी। बस लड़की रेडी रहना चाहिए। उसके बाद हमारा रिलेटिव लोग उसके गाँव जाता है। वहाँ दोनों पार्टी खूब बात-बात में झगड़ा करता है। कैसे रखेगा मेरी बेटी को? कमाता नहीं है। ये सब बोलता है’

‘फिर?’

‘फिर क्या? एक-दो पड़ोसी लोग समझाता है कि अभी बेटी दूसरे गाँव गया, अब मान जाओ। ये कह कर लड़का वाला लोग लड़की वाले के गले में खड़ास डाल देता है। एक बार खड़ास पहन लिया, बात खत्म’

‘खड़ास मतलब जो गमछे जैसी सफ़ेद कपड़े की चीज आपलोग पहनाते हैं? मेरे गाँव में उसे तौनी कहते हैं’

‘हाँ! ये वाला’, उन्होंने डैशबोर्ड से एक सफेद रेशमी गमछा निकाल कर कहा

‘दहेज भी है?’

‘पहले तो नहीं था। लेकिन अभी अमीर लोग कुछ लेना-देना शुरु किया है। माँगता नहीं है मगर’

‘एक्सपेक्ट करते हैं कि कुछ गाड़ी, गहने वगैरा दें?’

‘हाँ। सरजी। ये सब अभी शुरु हो गया। पैसा आने से’

‘अगर लड़की गरीब हो?’

‘लड़की से ज्यादा लड़का गरीब हो तो प्रॉब्लम है। उसमें कभी-कभी दंगा होता है। मारता भी है’

‘अगर मुसलमान हो?’

‘फिर तो बहुत प्रॉब्लम हो जाता है। शादी तो होता है। मेरा एक भाई भी किया। लेकिन, उसको गाँव से निकाल देता है। बहुत झगड़ा होता है’

‘यहाँ भी दंगे हुए हैं? बौद्ध और मुसलमानों में?’

‘होता है सरजी। झगड़ा-दंगा तो होता ही है’

‘कश्मीरी मुसलमानों से?’

‘कश्मीरी तो कम है। इधर लद्दाख के ही मुसलमान हैं। शिया-सुन्नी दोनों है न सरजी’

‘यानी यहाँ के मुसलमान कश्मीरी मुसलमानों से कुछ अलग कम्युनिटी हैं?’

‘हाँ सरजी’

‘अभी तो यहाँ से भाजपा के सांसद हैं। क्या उनको बौद्ध वोट मिलते हैं?’

‘जे टी एन बोलता है हमलोग उनको। बहुत अच्छा आदमी है वो। वोट तो उनको सभी देता है’

‘देखा है उनको लोकसभा में बोलते हुए। तेजस्वी युवा नेता लगते हैं। वह राजा फैमिली से ही हैं न? जो नांगयाल फैमिली है?’

’नहीं। वो तो गरीब फैमिली से है। राजा फैमिली का नहीं जीतेगा इधर। उनका लोग कम है न’

‘क्यों? क्या यहाँ भी जाति है? ऊँच-नीच है?’

‘थोड़ा है…वो तो सब जगह है सरजी। बड़ा लोग बड़ा लोग है। छोटा लोग छोटा है’

आगे की कहानी खंड 8 में 

लद्दाख के सांसद जे टी नांगयाल का वक्तव्य देखने के लिए क्लिक करें 

Author Praveen Jha describes the food, drink and marriage culture in Ladakh.

दुनिया के इस कोने में भगा कर शादी करने की परंपरा है। पढ़ने के लिए क्लिक करें

प्रवीण झा की किताबों के लिए क्लिक करें 

 

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