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‘अगर यहाँ एक साल बिताया, तो भी बुद्धिज्म का वन परसेंट से भी कम समझेंगे। एवरी डॉट हैज अ मीनिंग। प्रॉब्लम ये है कि बताने वाला सही आदमी इंडिया में नहीं है। अच्छे-अच्छे एक्सपर्ट इंडिया से बाहर हैं।
एक कनाडा के एक्सपर्ट हैं, जिनका डिकेड्स ऑफ रिसर्च है, वह आते हैं तो एक महीना रुकते हैं। उनके साथ घूमने में, समझने में, एक्सप्लेन करने में अच्छा लगता है। बाकी तो टूरिस्ट हैं, फोटो खींच के चले जाएँगे, इंस्टाग्राम पर डालेंगे। उसमें बुद्धिज्म कहाँ है?’, मि. दोरजी ने कहा
मैं शून्य ज्ञान वाला व्यक्ति नहीं। आनंद कुमारस्वामी की किताब पढ़ी है। जयधारी सिंह लिखित ‘बौद्धगान में तांत्रिक सिद्धांत’ थोड़ी-बहुत पलटी है। तारा तो मेरे ग्राम में भी हैं, और कई शक्तिपीठों के चक्कर लगा चुका हूँ। लेकिन बौद्ध ज्ञान में हाथ-पाँव फूल जाते हैं।
एक बड़ी समस्या है ट्रांस्क्रिप्शन की। कई पाली या संस्कृत शब्द तिब्बती, सिंहली, जापानी, चीनी आदि में बदल चुके हैं। जैसे हाल में पलायित श्रीलंकाई राष्ट्रपति का मूल नाम गतभय राज्यपक्ष (गतभय- जिसका भय चला गया हो) है; वह मात्र मराठी अखबारों में सही मिला। अंग्रेज़ी-हिंदी में तो वह गोट्टाबाया, गट्टाभया और पता नहीं क्या-क्या हो गया। अब सोचिए तिब्बती या चीनी में कैसे नामान्तरण हुए होंगे!
अलची का गोंपा (बौद्धमठ) पूरे लद्दाख-तिब्बत के सबसे प्राचीन स्थलों में है, जो अब तक कायम है। हालाँकि यह मठ रूप में सक्रिय नहीं, लेकिन पर्यटक जा सकते हैं। अंदर फ़ोटो खींचने की इज़ाजत नहीं और शरीर ढका होना चाहिए। चूँकि मैं शॉर्ट्स में था, तो धोती पहनायी गयी।
अंदर विशाल मूर्तियाँ हैं। इतनी ऊँची कि एक तल में मात्र उनके पैर, दूसरे में उनके शरीर और तीसरे तल पर मस्तक हैं। हालाँकि सीढ़ियों से जाकर संपूर्णता में देखने की अनुमति नहीं, संकरे प्रांगण के निचले तल पर खड़े होकर छत की तरफ़ देखना होता है। मैत्रेय बुद्ध (भविष्य के बुद्ध), शाक्यमुनि बुद्ध (गौतम बुद्ध), हरी तारा भगवती, पद्मसंभव, अवलोकितेश्वर, रिनचेन जांगपो आदि की। उनकी धोतियों पर तीन तरह की पेंटिंग थी। एक भूतकाल के रहन-सहन की (यानी दो-तीन हज़ार वर्ष पूर्व)। दूसरी मूर्ति बनने के वर्तमान काल (यानी हज़ार वर्ष पूर्व) की।
तीसरी भविष्य (यानी आज) की। मैं ग़ौर से देखता रहा कि क्या वे वाकई आज के रहन-सहन से मिलती हैं। उसमें भी लोग तपस्या करते दिख रहे थे, खेतों में काम करते दिख रहे थे। बहुत ढूँढने पर भी किसी के हाथ में मोबाइल नहीं दिखा।
एक दीवार पर जीर्ण-शीर्ण भित्तिचित्र उकेरी थी जिसमें छह खाने थे। चित्र स्पष्ट नहीं था मगर एक झटके में समझ आ गया, क्योंकि वैसे चित्र मैंने प्रभुपाद (इस्कॉन) की गीता में भी देखे हैं। उन खानों का अर्थ यह था कि आप अपने कर्म के हिसाब से अगले जन्म में कहाँ पहुँचेंगे?
एक खाने में राक्षस दिख रहे थे, एक में जानवर, एक में साधारण मनुष्य, एक में कुछ योद्धा थे, एक में बौद्ध संत, और आखिरी में सीधे स्वर्ग का रास्ता दिखाया गया था जहाँ तमाम बुद्ध पहले से बैठे थे।
इतने सुंदर चित्र और मूर्तियाँ, मगर समझाने वाला कोई नहीं। खुद ही देखिए, समझिए। अप्प दीपो भवः!
मैं बाहर निकल कर एक कार्यालय में पहुँचा जहाँ एक बौद्ध मॉन्क बैठ कर मोबाइल देख रहे थे। बढ़िया स्मार्टफ़ोन था, मॉडल देख न सका। इससे पहले लेह में एक लाल जीप चलाते मॉन्क भी दिखे थे। भला ऐसे बनेंगे बोधिसत्व और पहुँचेंगे स्वर्ग? अगर यही स्थिति रही तो एक दिन किताब छपेगी- ‘मॉन्क हू बॉट अ ब्रांड न्यू फरारी’
खैर, मैंने उनसे पूछा कि फ़रारी…नहीं, नहीं मैंने पूछा, ‘अंदर मंदिर में बुद्धत्व पाने के रास्ते दिखाए थे, और एक मूर्ति के हाथ में पीला अस्त्र दिख रहा था। यह कुछ समझ नहीं आया’ (बुद्ध के हाथ तलवार देख मैं चौंक गया था)
यह प्रश्न मैंने पूँजीवादी तरीका अपनाते हुए तीन स्मृति-वस्तु (सोवेनिर) वहीं से खरीद कर पूछा था, और एक सचित्र पुस्तक उनके सामने ही पलट रहा था।
उन्होंने कहा, ’वह स्वर्ड (तलवार) है। अपने अंदर के डेविल को मारने के लिए’
मैंने पूछा, ‘स्वर्ड या वज्र?’
उन्होंने कहा, ‘बैठिए। लेट मी एक्सप्लेन’
‘अलची वज्रयान (Vajrayana) का सबसे पुराना सेंटर है। यहीं से वो हिमालय के साथ-साथ ईस्ट तक गया। अंदर अवलोकितेश्वर (Avlokiteshwara) के हाथ में वज्र है। आप अलची पर ये बुक पढ़िए। इसमें सब लिखा है’, बौद्ध संत ने मेरे द्वारा पलटे जा रहे किताब देख कर कहा।
मैंने वह किताब नहीं ली, क्योंकि उसमें वही तस्वीरें थी, जो अंदर मंदिर में थी। यह किसी विदेशी लेखक की कॉफी टेबल बुक थी। मुझे फ़ोटोग्राफ़ी का न शौक है, न निपुणता। दो मशहूर (नोबेल पुरस्कृत) यायावर कभी तस्वीर लेते ही नहीं थे। एक ने लिखा कि अगर लेते तो न यात्रा ठीक से कर पाते, न चीजों को ठीक से देख पाते। हालाँकि मोबाइल युग में दो-चार आड़ी-तिरछी तस्वीरें यूँ ही ले लेता हूँ, किंतु शनैः-शनैः प्रवृत्ति घटा रहा हूँ।
मेरे पास जो किताब पहले से थी, उसके अनुसार अगर बिना भारी-भरकम शब्दों के पूरी प्रक्रिया देखें तो मामला कुछ यूँ लगता है। गौतम बुद्ध ने देशाटन कर अपने विचार रखे, और एक दिन वह चले गए। उसके बाद उनके शिष्यों के मध्य खींच-तान शुरू हुई कि आगे क्या? वे बुद्धत्व या प्रबोधन (enlightenment) कैसे हासिल करें? बौद्ध प्रचार कैसे हो? उसका डिज़ाइन क्या हो?
जो बुद्ध के परम शिष्य थे, और जिन्होंने उनको समझा, उनका कहना था – ‘हम सबको अपनी राह स्वयं बनानी होगी। हमारे दुःखों के निवारण के लिए कोई ईश्वर, कोई दैवीय शक्ति, या स्वयं बुद्ध ही नहीं आने वाले। हम कोई ग्रंथ, मंत्र, या बुद्ध की मूर्ति की उपासना नहीं करेंगे। हमें अपने कर्मों और बुद्ध की शिक्षा से ही प्रबोधन का मार्ग मिलेगा।’
तकनीकी रूप से ये अनीश्वरवादी बुद्ध के सबसे करीब लगते हैं, मगर कालांतर में इनकी प्रबोधन की गाड़ी (यान) हीनयान (Hinayana) कहलाने लगी। सबसे निचले तबके की, धीमी, खटारा बैलगाड़ी जिससे कभी निर्वाण नहीं पाया जा सकता।
दूसरा समूह जो अधिक शक्तिशाली हुआ, उन्होंने जगह-जगह बुद्ध की मूर्तियाँ स्थापित करनी शुरू की। बौद्ध स्तूपों और प्रतीकों की रेल लगा दी। पाली में बुद्ध की शिक्षाओं को लिखा, और प्रचारित किया। राजाओं को मोबिलाइज किया। इन्होंने बुद्ध के साथ-साथ अन्य सनातनी देवी-देवताओं को भी स्थान दिया, और एक पूरा सिस्टम बनाया। यहाँ तक कि बुद्ध के पूर्व और आने वाले अवतारों की भी घोषणा करनी शुरू कर दी। इनका मानना था कि प्रबोधन एक लंबी प्रक्रिया है, जिसके लिए कई जन्म लेने पड़ सकते हैं। हमें बस बौद्ध मार्ग पर आजीवन चलते जाना है।
यह चमकदार लुभावनी मर्सिडीज़ गाड़ी कहलायी- महायान (Mahayana)। ये बुद्ध की मूर्तिपूजा और कर्मकांड विरोध को पूरी तरह किनारे करते हुए इतनी विशाल मूर्तियाँ बनवाने लगे कि चार कोस से बुद्ध दिखाई पड़ जाएँ।
लेकिन, वह महानिर्वाण न बैलगाड़ी से मिला, न मर्सिडीज़ से। न जाने कितनों ने बुद्ध-मार्ग अपनाया, किंतु दूसरे बुद्ध तो नहीं हुए। महायान भी आखिर कई जन्मों का मामला था। कोई ऐसा शॉर्टकट मिल जाए कि इसी जन्म में प्रबोधन हो जाए?
फिर आए पद्मसंभव (Padmasambhava)। तिब्बती लोगों के लिए वही दूसरे बुद्ध हैं। उन्होंने बाल्टिस्तान और लद्दाख के वीराने में तपस्या कर कुछ जादुई ज्ञान हासिल किया। जैसे इंद्र के वज्र से बिजली कड़कते ही बारिश हो जाती है, उस गति से प्रबोधन हासिल करने का ट्रिक। इसमें अपने शरीर के कुंडलियों का यंत्र था, मंडलों का तंत्र था, और ऊँ, हूं, ह्रीं, जैसी कॉस्मिक ध्वनियों का मंत्र था। इससे एक ही जन्म में प्रबोधन हासिल किया जा सकता था।
यह तेज भागती व्रूम-व्रूम करती फ़ेरारी गाड़ी कहलायी- वज्रयान (Vajrayana)। यह इसी अलची (लद्दाख) से तिब्बत, चीन, नेपाल होती हुई अरुणाचल तक पहुँच गयी। कुछ मानते हैं कि मंगोलिया और साइबेरिया के शामन तंत्र भी इन्हीं से प्रेरित हैं, जो आर्कटिक सर्कल में घूमे।
बैलगाड़ी, मर्सिडीज़ और फ़ेरारी से हीनयान, महायान और वज्रयान की तुलना सिर्फ़ सरलता के लिए किया गया है। अन्यथा बौद्ध दर्शन के भारी-भरकम शब्द सर घुमा देते हैं। वे दर्शनशास्त्री समझाते रहें।
लद्दाख में एक मशहूर गुरुद्वारा है- पत्थर साहिब। इसे भारतीय सेना संचालित, व्यवस्थित रखती है। अन्य गुरुद्वारों की तरह ही साफ-सुथरी, शांत जगह। यहाँ एक विशाल पत्थर रखा है, जिसमें एक छाप बन गयी है जैसे कोई तपस्या कर रहा हो। वहाँ वर्णित है कि एक बार गुरु नानक वहाँ तपस्या में लीन थे, जब एक राक्षस ने उन पर चट्टान फेंकी। वह चट्टान उनके शरीर पर लगते ही पिघल गयी, और किसी साँचे की तरह उस पर उनके शरीर का निशान बन गया।
नवांग शाक्सपो अपनी किताब में लिखते हैं कि तपस्या पद्मसंभव कर रहे थे, और राक्षस ने उन पर चट्टान फेंका था जिससे निशान बना। अब जो भी हुआ, फ़िलहाल तो गुरुद्वारा ही है और मैं माथा टेक आया।
आस्थाओं से निकल कर अब कुछ देर असल दुनिया में चलता हूँ। लेह से कुछ ही दूर एक भवन में जब मैं पहुँचा तो लगभग सौ लोग समवेत स्वर में हाथ उठा कर कह रहे थे- ‘भारत माता की’
मेरे साथ अंदर प्रवेश करते दर्जन लोगों ने उनके साथ स्वर मिला कर कहा- ‘जय!’
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In part four of Ladakh series, author Praveen Jha narrates the classification of Buddhism in Mahayana, Hinayana and Vajrayana.
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