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लद्दाख बौद्ध और मुसलमान बहुल क्षेत्र है। कुछ मौसमी प्रवासियों और व्यवसायियों को छोड़ कर पारंपरिक हिंदू अपेक्षाकृत कम हैं। मेघालय की तरह ही हिंदू मंदिर फौजी छावनियों में ही मिल सकते हैं, बाज़ार या बस्तियों में नगण्य। हालाँकि बौद्ध और हिंदू मंदिरों में खासा ओवरलैप है, जिसकी चर्चा आगे करता रहूँगा; किंतु मैं यहाँ सपाट संवैधानिक विभाजन की बात कर रहा हूँ, जिसके अनुसार बौद्ध की गिनती भिन्न धर्म रूप में है।
आप जिस समय लेह हवाईअड्डे पर उतरते हैं, वहीं से बौद्ध वातावरण में प्रवेश करने लगते हैं। कुछ-कुछ पगोडा शैली में बना टर्मिनल जो बौद्ध धर्मगुरु कुषक बकुल रिमपोचे (दलाई लामा समकक्ष) के नाम पर है। अंदर घुसते ही बौद्ध शैली में उकेरे गए स्तंभ और तिब्बती लिपि में लिखे निर्देश। अंग्रेज़ी और तिब्बती के अतिरिक्त कोई और लिपि नहीं दिखती। बाहर निकलते ही आप भगवा वस्त्र में सर मुंडाए बौद्ध भिक्षुओं, बौद्ध मठों, विहारों और स्तूपों को देखने लगते हैं।
कुषक बकुल रिमपोचे पर दो टूक कह देता हूँ। यह माना जाता है कि गौतम बुद्ध के साक्षात् सोलह शिष्यों में एक अरहत बकुल ने एक परंपरा स्थापित की। उन्हीं परंपरा में समय-समय पर अवतार या गुरु होते रहे, जिनके बीसवें गुरु फ़िलहाल लद्दाख के धर्मगुरु हैं। इनसे ठीक पूर्व रहे उन्नीसवें धर्मगुरु को आधुनिक लद्दाख का पितामह कहा जाता है। वह कांग्रेस पार्टी से जुड़ कर राजनैतिक रूप से सक्रिय रहे, हालाँकि धारा 370 से लेकर भारत-चीन युद्ध विषय पर उनके अपने दल से मतभेद रहे। उन्होंने लद्दाख और बौद्ध धर्म को यथासंभव बचा कर रखा। अपने आखिरी कार्यकाल में वह मंगोलिया के भारत के राजदूत बनाए गए, और वहाँ के मृतप्राय बौद्ध धर्म को उन्होंने पुनर्जीवित कर दिया। आज भी मंगोलिया के बौद्ध उन्हें अपना गुरु मानते हैं।
‘आप सभी लोग यह लिपि पढ़ लेते हैं?’, मैंने अपने गाड़ी चालक से पूछा
‘हाँ! हम तो बुद्धिस्ट है न सर जी। ये तो बचपन से पढ़ रहा है। हमारा सब बुक उसी में है’, उन्होंने कहा
‘कौन पढ़ाता है? आपके माता-पिता या स्कूल में?’
‘स्कूल में नहीं। ये तो हमलोग मोनास्ट्री जाते-जाते सीख गया। ये मुश्किल नहीं है’
‘आपका मतलब है कि हर लद्दाखी यह लिपि यूँ ही पढ़ना और लिखना सीख गए? बिना स्कूल में सिखाए? या आप सब ने बचपन में कुछ साल मठ में बिताए हैं?’
‘नहीं। हमलोग उधर नहीं रहता था। आता-जाता था। अपना बुद्धिस्ट बुक सब पढ़ता था, जो लद्दाखी में लिखा है’
‘आपका मतलब तिब्बती में?’
‘हाँ। वो सब एक जैसा ही है’
‘आप अब भी नियमित पूजा करते हैं? बुक या मंत्र पढ़ते हैं?’
‘सब पढ़ता है- ओम मणिपद्मे हूम्’
‘कितनी बार? 108 या हज़ार बार?’
‘ऐसा कुछ नहीं है। कभी भी खाली बैठा है तो पढ़ लिया। कभी गिना नहीं। पर डे हज़ार तो हो जाता रहेगा। अभी हम 40 का हो गया, तो थोड़ा ज्यादा करता है। आगे मालूम नहीं कितने साल जीएगा’
‘अरे भाई! डराओ मत। मुझसे उम्र में छोटे ही हो, और मैं हज़ार बार गायत्री मंत्र तो नहीं ही पढ़ता। तुम्हारा मंत्र गायत्री और शक्ति मंत्रों का जोड़ लगता है। इनमें दो अक्षर तो मैं भी पढ़ता हूँ। क्या अर्थ है?’
‘यह ठीक से मालूम नहीं सर जी। मेरा भाई जानता है। वो मोंक बन गया है। हमलोग तो बस पढ़ता है’
‘मणिपद्म तो कमल के मध्य मणि ही हुआ। संभवतः बुद्ध?’
‘मालूम नहीं सर जी। आप भी लैंग्वेज जानता है?’
‘नहीं। ये शब्द तो संस्कृत में भी हैं, इसलिए अंदाज़ा लगा रहा हूँ…खैर, इसका अर्थ है कि पूरा लद्दाख बिना स्कूल गए साक्षर है? सभी पढ़-लिख लेते हैं? लड़कियाँ भी? ग्रामीण भी?’
‘बुद्धिस्ट तो सब पढ़ लेता है। स्कूल-कॉलेज सब नहीं गया’
‘मगर साक्षरता तो कुछ सत्तर प्रतिशत दिखा रहा है?’, मैंने मोबाइल पर जाँचते हुए कहा
‘मालूम नहीं सर जी। ऐसे तो सब पढ़ लेता है’
’हम्म…शायद इसलिए कि सभी बुद्धिस्ट नहीं, या तिब्बती लिटरेसी काउंट नहीं होती होगी? देखना होगा’, मैंने मन ही मन बड़बड़ाते कहा
शाम का वक्त था। धूप अब भी खिली थी। मैं दुनिया के सबसे ऊँचे शांति स्तूप पर खड़ा था। दूर मस्जिद से आती अजान और स्तूप में बज रहे बौद्ध मंत्रों के स्वर घाटी को घेरते पहाड़ों से टकरा रहे थे। मैं वहाँ की एकमात्र दुकान में कहवा पीने बैठ गया।
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लेह का जापानी मॉडल शांति स्तूप लगभग बारह हज़ार फ़ीट पर स्थित दुनिया का सबसे ऊँचा स्तूप है। लेकिन जिन्हें इतिहास में रुचि है, उनके लिए यह तो नयी-नवेली चीज है। उम्र के हिसाब से मुझ से भी दस साल छोटा है। हाँ! देश-विदेश के पर्यटक आते हैं, पूरे लेह की फ़ोटो खींचने के लिए उपयुक्त जगह है। हवा अच्छी चलती है। इसके बाहर लगी पट्टिका पर लिखा है कि इसे जापान के फूजी गुरुजी ने अपना एक बौद्धभिक्षु भेज कर 1985 में बनवाना शुरू किया था।
इसकी ख़ासियत लगी कि जो बुद्ध के विषय में कुछ नहीं जानते, उन्हें चटख रंगों के नए डिज़ाइन चित्रों के माध्यम से समझाने के लिए अच्छी जगह है। जर्मन नवयुवकों का एक जत्था वहाँ हकबकाया खड़ा था, जिन्हें गाइड बहुत ही सहजता से समझा रहे थे। मैं कान लगा कर सुनने लगा और मन ही मन प्रतिप्रश्न करने लगा-
‘यह देखिए बुद्ध का अवतरण। आप सोचते होंगे कि दुनिया में एक ही बुद्ध हुए। बुद्ध तो कई हुए, और आगे भी कई होंगे। पृथ्वी पर अवतरण से पहले बोधिसत्व अपने महान् कर्मों के कारण तुषिता स्वर्ग में अन्य देवताओं के पास पहुँचे। वहाँ ब्रह्माण्ड की संपूर्ण शक्तियों ने उन्हें मैत्रेय बोधिसत्व रूप में जन्म लेने का आशीर्वाद दिया। ईसा से सदियों पूर्व उन बुद्ध का अवतरण हुआ’
[मैंने पढ़ा है कि मैत्रेय बोधिसत्व का अभी अवतरण नहीं हुआ। जो आखिरी बुद्ध हुए, वह शाक्यमुनि बुद्ध हुए]आगे उन्होंने स्तूप की अगली तस्वीर दिखा कर कहा,
‘बोधिसत्व छह सूँडों वाले सफ़ेद हाथी में बदल गए, और अपनी माँ रानी माया की दायीं छाती से गुजर कर गर्भ में प्रवेश कर गए। तमाम बोधिसत्व मंत्र पढ़ रहे थे और संपूर्ण ब्रह्माण्ड संगीतमय हो गया था…दस माह पश्चात जब रानी लुम्बिनी के उपवन में विचरण कर रही थी, तो उनकी दायीं छाती से ही राजकुमार का जन्म हुआ जिन्हें अन्य बोधिसत्वों और देवताओं ने गोद में लेकर नहलाया…उसी समय हिमालय से आए संत ने कहा कि यह बड़ा होकर राजपाट छोड़ देगा’
[इस पर जर्मन लड़के सर हिला-हिला कर एक-दूसरे से खुसर-पुसर करने लगे]अगली तस्वीर की ओर बढ़ते हुए गाइड ने कुछ यूँ कहा,
‘राजकुमार को तो सब ज्ञान पहले से था ही, मगर उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई। युद्ध-कला सिखायी गयी। वह वाकई राजपाट छोड़ कर चले न जाएँ, इसलिए उनका विवाह यशोधरा से कराया गया। वह वैभवशाली जीवन जी रहे थे…एक दिन वह महल के पूर्वी द्वार से निकले तो देखा कि कई वृद्ध खड़े हैं। वह लौट कर दक्षिण द्वार से निकले तो उन्हें कई रोगी दिखे। जब वह पश्चिमी द्वार से निकले तो मृत्यु दिखी। आखिर उत्तरी द्वार पर उन्हें एक भिक्षु मिले!’
आगे कहा,
‘उसी रात जब उनकी पत्नी सो रही थी, वह महल से अपने घोड़े पर निकल गए। एक स्थान पर उन्होंने अपने बालों और राजवस्त्रों का त्याग किया। उसके पश्चात वह जहाँ-जहाँ विश्राम कर अपने बाल काटते, वस्त्र बदलते, वहाँ स्तूप बनते गए…वह कई संतों के पास गए किंतु उन्हें लगा कि इन सांसारिक ज्ञान से उन्हें कुछ प्राप्त नहीं होगा। वह निरंजना नदी के किनारे एक वृक्ष के नीचे ध्यान लगाने बैठ गए। छह वर्ष तक बिना खाए-पीये तपस्या में लीन रहे। उनकी हड्डियाँ निकल आयी, आँखें धँस गयी’
[अब कुछ भीड़ जमा होने लगी थी, मगर गाइड ने कहीं बोधिवृक्ष या बोधगया का नाम नहीं लिया, जिसकी प्रतीक्षा मुझे थी]‘आखिर एक ग्राम की लड़की ने उन्हें खाने के लिए दलिया दिया, जिसे उन्होंने खाया। उनकी तपस्या टूट गयी, और यह देख कर उनके पाँच शिष्य बोधिसत्व छोड़ कर चले गए। आखिर कुछ घसियारों ने उन्हें घास की गद्दी बना दी, और उन्होंने कमल मुद्रा में बैठ कर आँखें बंद की। यह तपस्या थी निर्वाण के लिए, जो किसी कारण भंग नहीं हो सकती थी। चाहे उनका भौतिक शरीर खत्म हो जाए, वे तपस्या में लीन रहेंगे…आखिर उनके सर के चारों तरफ़ प्रकाश की लालिमा बिखर गयी, आस-पास पुष्प खिल उठे, संगीत गूँजने लगा, वह बुद्ध बन चुके थे’
‘उसके बाद बुद्ध ने अपनी शिक्षा घूम-घूम कर देनी शुरू की। कई शिष्य उनकी यात्रा में शामिल होते गए। वह जिस गाँव से गुजरते, वहीं उनके शिष्य बन जाते….आखिर संपूर्ण देशाटन के बाद जब वह लगभग अस्सी वर्ष के हुए तो यह परिनिर्वाण का समय था। वह कुशीनगर में अपने शिष्यों के साथ बैठे और उन्हें कहा- हर सुगंध अल्पकालिक होती है, हमें नित प्रयास करते रहना होता है…यह कह कर वह वापस स्वर्ग प्रस्थान कर गए’
यह ‘बुद्ध इन अ नटशेल’ हमने अमर चित्रकथा में पढ़ी होगी, लेकिन लेह की ऊँचाई पर एक शांति-स्तूप में गोल-गोल घूमते हुए चित्रों को निहारते हुए देखना एक अलग अनुभव है। यह आपको सम्मोहित कर देता है।
सम्मोहन में कुछ इज़ाफ़ा तब हुआ, जब व्यस्त बाज़ार में एक छोटी अनाकर्षक दुकान पर नज़र गयी। लिखा था- ‘तांत्रिक तिब्बत’
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In this part of Ladakh travelogue, Author Praveen Jha describes influence of Buddhism in Ladakh
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