कैवल्य कुमार गुरव

“तुम्हें कहाँ गाना है? यह तो तुम्हारे अंदर बसा धारवाड़ गाएगा। बस अब्दुल करीम ख़ान साहब की एक बात ध्यान रखो कि जब मंच पर बैठोगे, तब तुम राजा हो। और जब मंच से उतरोगे तो निरीह। अपना अभिमान और अपनी असीम शक्ति मंच तक ही रहेगी।”

“क्या रक्खा है संगीत में? वह जमाना गया। अब डिस्को का जमाना है। और मेरा बेटा डिस्को करे, यह मैं कभी नहीं चाहूँगा।”

“तो आप मुझे क्यों नहीं सिखाते?” उस किशोर ने तलब की।

“मुझे डिस्को नहीं आता। मुझे तो मेरे पिता ने वही सिखाया, जो उन्हें अब्दुल करीम ख़ान साहब ने सिखाया। उसका अब कोई मूल्य नहीं। तुम इंजीनियर बनोगे।”

“आप सिखाएँ न सिखाएँ, मैं गाऊँगा ज़रूर। यह तो मेरे खून में है।”

कुछ साल बाद इंजीनियरिंग कॉलेज की छुट्टियों में वह लड़का घर आता है। घर में पिता कुछ दोस्तों के साथ महफ़िल जमाए बैठे हैं।

वह कहता है, “मुझे भी गाने का मौका दीजिए”

उनके पिता के मित्र कहते हैं, “तुम क्या गाओगे? बॉलीवुड? सुनाओ”

वह मन्ना डे का गीत सुनाता है- पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी…

“हम्म! तुम्हारे लड़के की आवाज में दम तो है, पर अभी तैयारी बाकी है। सुनो लड़के! मैं तुम्हें अब बाल गंधर्व की एक कैसेट देता हूँ। इसे दो बार सुन कर लौटो, और हू-ब-हू गाकर दिखाओ।”

वह लौट कर आता है और गाकर सुनाता है।

“अब तो तुम्हें अपने बेटे को सिखाना ही होगा। इसके खून में तानपुरा है, और तुमने किताबें पकड़ा रखी है”

“अब किताबें ही भविष्य हैं डांडेकर। मैं नहीं चाहता कि इसे मेरी तरह संघर्ष करना पड़े। इंजीनियर बनेगा, तो अच्छी नौकरी लग जाएगी।”

“इंजीनियर तो खैर बन ही जाएगा। लेकिन तुम इसे वह चीजें ज़रूर सौंपो जो तुम्हें अपने पिता से मिली, और उन्हें औलिया करीम ख़ान साहब से। तुम्हारा कोई खानदानी जमीन-जत्था तो है नहीं। तुम्हारी यही संपत्ति है, और तुम्हारे बाद उस पर इसी का अधिकार है।”

उसके पिता संगीत की तालीम छुट्टियों में देना शुरू करते हैं। जब भी ग़लती करता, पिता जाँघ पर जोर से चिकोटी काटते। लेकिन यह नहीं बताते कि ग़लती क्या हुई। जैसे जैसे जाँघ लाल होता जाता, सुर सधते जाते।

करीम ख़ान साहब की ‘पिया बिन आवत नहि चैन’ वह हॉस्टल में भी गुनगुना रहा है। सुबह जल्दी जाग कर रियाज़ पर बैठा है।

एक दिन उसके चचा डांडेकर हॉस्टल आकर मिलते हैं और कहते हैं, “संगीत की एक बड़ी प्रतियोगिता हो रही है। इचलकरंजी में। यह वही जगह है जहाँ से महाराष्ट्र में हिंदुस्तानी संगीत की नींव पड़ी थी। भाग ले पाओगे?”

“हाँ! लेकिन मुझे क्या गाना होगा?”

“तुम्हें कहाँ गाना है? यह तो तुम्हारे अंदर बसा धारवाड़ गाएगा। बस अब्दुल करीम ख़ान साहब की एक बात ध्यान रखो कि जब मंच पर बैठोगे, तब तुम राजा हो। और जब मंच से उतरोगे तो निरीह। अपना अभिमान और अपनी असीम शक्ति मंच तक ही रहेगी।”

आखिर वह प्रतियोगिता जीत कर जब वह अपने घर लौटा तो पिता की आँखें नम हो उठी। लेकिन कुछ कहा नहीं। कहने को कुछ था भी नहीं।

(कैवल्य कुमार गुरव पर आधारित)

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विडियो लिंक में तानसेन-बैजू बावरा ‘पत्थरतोड़’ गायकी करते हुए। यह ‘स्वरसाधना’ वृत्तचित्र (दूरदर्शन) से। तानसेन के रूप में कैवल्य कुमार और बैजू बावरा के रूप में श्रीराम देशपांडे अभिनय करते हुए। https://youtu.be/ZRkm9V0VFhE

(इस शृंखला में उनकी ही चर्चा होगी जिनकी पैदाईश 1960 के बाद की है)

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