काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

Ghalib Gali Qasim Jaan
1857 के गदर के समय ग़ालिब दिल्ली में मौजूद थे। उनका जीवन आखिरी मुग़ल बादशाह से ब्रिटिश महारानी विक्टोरिया के सत्ता-परिवर्तन का चश्मदीद रहा। उनकी शायरियों में यह दौर कभी नेपथ्य में तो कभी मुखर होकर आता है। यह ज़िंदगी नामा इस तरह लिखी गयी है कि ग़ालिब की कहानी ग़ालिब की ज़ुबानी सुनी जा सके। यह किताब लिखी है वरिष्ठ पत्रकार विनोद भारद्वाज ने

मेरे जैसे कई लोगों का ताल्लुक़ उर्दू शे’रो-शायरी से हो न हो, ग़ालिब से ज़रूर रहा। चाहे दूरदर्शन के ‘मिर्जा ग़ालिब’ धारावाहिक की वजह से हुआ हो, या उसी में जगजीत सिंह की गायी ग़ज़लों के मार्फ़त। एक दफ़ा मैंने गली क़ासिम जान से हजरत निज़ामुद्दीन तक दौड़ लगायी थी। उनकी कोठी से उनकी क़ब्र तक। आज सोशल मीडिया के जमाने में तो वह भी ग़ालिब के नाम से निकल कर आ रहा है, जो उनकी दीवान में कभी था ही नहीं। तुर्की टोपी वाले रूमानी जगत चचा बन गए हैं ग़ालिब।

पूछते हैं वो कि ग़ालिब कौन है
कोई बतलाओ कि हम बतलाएँ क्या

बहरहाल, स्टोरीटेल पर ग़ालिब की कहानी ग़ालिब की ज़ुबानी सुनी। यह विनोद भारद्वाज का लिखा ज़िंदगीनामा है, जिसमें कथावाचक स्वयं ग़ालिब ही हैं। उनके बचपन से आखिरी दिनों तक की कहानी लेखक ने उनके ख़तों और अन्य स्रोतों से गढ़े हैं।

इसमें मेरे लिए ख़ास बात यह थी कि ग़ालिब एक ट्रांज़िशन पीरियड के गवाह रहे। उन्होंने मुग़लों का अंत और ब्रिटिशों की पूर्ण सत्ता का आना क़रीब से देखा। 1857 के ग़दर के तो वह चश्मदीद थे, और बहादुरशाह ज़फ़र की तारीख़ लिखने के लिए अंग्रेजों ने अभियोग भी लगाए। उन्होंने अपनी किताब दस्तंबू में यह सन सत्तावन की दास्तां उकेरी है। मगर ग़ालिब का नज़रिया एक कदम आगे का था। 

वह इस ग़दर को शुरुआत से ही एक हारी हुई ज़ंग कह रहे थे। उन्होंने कहा कि जिन मुग़ल शहज़ादों ने एक चिड़ी नहीं मारी, वे ब्रिटिश से आखिर क्या लड़ेंगे? दिल्ली के लुटने, बाज़ार के बर्बाद होने, कत्ल-ए-आम और शऊर के कलेवर बदलने का उन्होंने अपनी शायरियों में ज़िक्र किया है।

ईमाँ मुझे रोके है जो खींचे है मुझे कुफ़्र
काबा मिरे पीछे है कलीसा मिरे आगे

अब काबा पीछे छूट गया है, कलीसा (चर्च) आगे दिख रहा है। जावेद अख़्तर के अनुसार इसका संभवतः एक अर्थ यह भी है कि रूढ़िवाद पीछे रह गया है, वैज्ञानिक और नयी सोच का ज़माना है। ऐसी बातें उनके समकालीन सर सैयद अहमद ख़ान ने तक़रीर में की और ग़ालिब ने अपनी शायरियों में।

जावेद अख़्तर इस शे’र के बारे में क्या कहते हैं, यह सुनने के लिए क्लिक करें 

इस ज़िंदगीनामा में एक ज़िक्र है जब ग़ालिब को 1857 के बाद अंग्रेज़ों ने बुला कर तफ़्तीश की।

उनसे पूछा गया कि क्या वह मुसलमान हैं?
उन्होंने कहा- ‘आधा’
पूछा- ‘आधा?’
ग़ालिब ने कहा- ‘सूअर नहीं खाता। शराब पीता हूँ’

अपने जीवन में वह मस्जिद और नमाज़ से दूर ही रहे, लेकिन अल्लाह से संवाद का उनका अपना तरीका था। यह बात उन्होंने अपनी पत्नी उमराव बेगम को इस बेहतरीन किताब में कही है, जो किताब में ही पढ़ या सुन लें। 

ग़ालिब के कलकत्ता यात्रा पर काफ़ी रोचक बातें लिखी गयी है। ख़ास कर बनारस पहुँच कर ग़ालिब को यह लगा कि ज़िंदगी तो यहीं गंगा किनारे गुजर जाए। वहाँ उन्होंने देखा कि किस तरह उनके दोस्त मुबारक अली बाबा विश्वनाथ के भजन लिख रहे हैं, और मुशायरों में शरीक हो रहे हैं। उन्होंने आश्चर्यजनक रूप से बनारस की गलियों को सबसे साफ-सुथरा कहा है, जहाँ बिना जूतियों के बड़े आराम से चला जा सकता था। उन दिनों वह युवक थे, और फ़ारसी में लिखते थे- 

बनारस रा मगर दीदस्त दर ख़्वाब
कि मी गरदद ज़ नहरश दर दहन आब

(बनारस को देखा होगा सपने में दिल्ली में, तभी उसके मुँह में नहर का पानी आ गया)

कलकत्ता वह दरअसल एक पेंशन के सिलसिले में गए थे। उनके जीवन भर पैसों की जद्दोजहद चलती रही, जो कभी ढंग से नसीब नहीं हुई। जब कुछ जुगाड़ लगता, कुछ न कुछ आफ़त आ जाती। उन दिनों बहादुरशाह जफ़र के उस्ताद इब्राहीम ज़ौक़ हुआ करते थे। इसलिए ज़ौक़ के जीते-जी ग़ालिब दरबार का हिस्सा नहीं बन सके। ज़ौक़ के 1854 में मरहूम होने के बाद ही ग़ालिब को नौकरी मिली, मगर उसके बाद तो ग़दर ही हो गया। इससे पहले वह दिल्ली कालेज की नौकरी ठुकरा चुके थे, मगर क़र्ज़ इतना बढ़ गया कि बादशाह की नौकरी करनी पड़ी थी। 

‘ग़ालिब’ वज़ीफ़ा-ख़्वार हो दो शाह को दुआ
वो दिन गए कि कहते थे नौकर नहीं हूँ मैं

ग़ालिब को बहादुरशाह ज़फ़र की नौकरी इस बात पर मिली कि वह मुगलो का इतिहास (तारीख़) लिखेंगे और शहज़ादों को फ़ारसी सिखाएँगे। एक दिन ग़ालिब ने वहाँ से भी अपनी जूती यह कह कर निकाल ली कि मुहब्बत की कहानी कह सकता हूँ, ज़ंग-ओ-सियासत की तारीख़ नहीं लिख सकता। बनारस के गौहर जान के कोठे की याद भी ग़ालिब कभी नहीं भूले जब वह पान की गिलौरी निकाल कर यूँ देती, जैसे दिल निकाल कर दे रही हो।

मोहब्बत में नहीं है फ़र्क़ जीने और मरने का
उसी को देख कर जीते हैं जिस काफ़िर पे दम निकले

यह पुस्तक ‘गली क़ासिम जान’ छप कर तो आयी ही है, मगर मैंने बाबला कोच्चर की आवाज़ में स्टोरीटेल पर सुनी। उनकी आवाज़ में ग़ालिब को सुनने में लगा कि वाकई वहीं उनके साथ बैठ उनकी पसंदीदा अंग्रेज़ी शराब ओल्ड टॉम की चुस्की ले रहा हूँ। इस किताब में एक क़िस्सा है कि जब ग़दर के समय अंग्रेज़ी शराब बहुत महंगी हो गयी और ग़ालिब कंगाल, तो उस वक्त उनके एक शागिर्द महेश दास देशी शराब लाकर देने लगे। उन्हें उस शराब की खुशबू बहुत भायी, और वह आखिरी दिनों में वही पीने लगे। 

गो हाथ को जुम्बिश नहीं आँखों में तो दम है
रहने दो अभी साग़र-ओ-मीना मेरे आगे

Author Praveen Jha narrates his experience about book Gali Qasim Jaan by Vinod Bharadwaj 

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