सोशल मीडिया में आपसी टकराव या मतभेद आम बात है, किंतु कभी-कभार इससे मित्रता टूटने से लेकर मानसिक क्षति तक बात पहुँच जाती है। सोशल मीडिया की वजह से दंगे भी हो रहे हैं, और मृत्यु भी। विश्व के अधिकतर देशों में (भारत में भी) राजनीति और धर्म अहम् मुद्दे हैं, जिनसे सोशल मीडिया में ‘कन्फ्लिक्ट’ जन्म लेते है। लोकतांत्रिक देशों में पार्टी या पंथ की ओर झुकाव होना प्राकृतिक है। सब के वैयक्तिक विचार और पारिवारिक मसले भी भिन्न हैं। अलोकतांत्रिक देशों में तो सोशल मीडिया पर एक हद तक पाबंदी और नियंत्रण भी है। कई बार लिखने वाला बच निकलता है, और उसकी पोस्ट शेयर होकर युवाओं या अपरिपक्व लोगों के बीच मतभेद का कारण बनती है। वहीं दूसरी ओर, लेखक पर भी भौतिक, मानसिक या वैधानिक आघात संभव हैं। तो यह सवाल मौजू है कि इनसे कैसे निजात पाएँ? ‘कन्फ्लिक्ट-मैनेजमेंट’ आखिर कैसे करें?
सोशल मीडिया या कहीं भी ‘कन्फ्लिक्ट मैनेजमेंट’ के पाँच सूत्र है- दो ‘A’ और तीन ‘C’.
१. Accomodate – एक को हार माननी होगी या दूसरे की बात माननी होगी।
२. Avoid- आप घोर असहमत हैं, तो टिप्पणी न करना। या लगे कि बिल्कुल नहीं बनने वाली, तो ब्लॉक करना।
३. Collaborate- दो, पाँच या सौ भिन्न प्रवृत्ति के लोग किसी एक बिंदु के लिए सहयोग दे सकते हैं। सोशल मीडिया समूह बना सकते हैं। उसके नियम बना कर संगठित रूप से कुछ सकारात्मक कर सकते हैं।
४. Compromise- सिर्फ एक नहीं, दोनों कुछ कदम पीछे लें, माफी माँगें, समझौता करें। कहा-सुना माफ करें।
५. Compete- यह मीमांसा कही जा सकती है। कई बार दो श्रेष्ठ और योग्य व्यक्ति एक दूसरे की रचनात्मक आलोचना कर सकते हैं, शास्त्रार्थ कर सकते हैं। इससे भी ज्ञान-सृजन होता है।
दो या अधिक व्यक्तियों के मध्य भिन्न-भिन्न स्थिति संभव है। पूर्ण असहमति गर अभिव्यक्त हो, तो उत्तर छोटी दें या न दें, या यह स्पष्ट कह दें कि चूंकि पूर्ण असहमति है, इसलिए इसमें बात आगे संभव नहीं। कुछ कदम तो दोनों को चलना होगा। ज्यादा असहमति या किसी खास बिंदु पर घोर असहमति हो तो इसका यथासंभव उत्तर दिया जा सकता है। पर शुरूआत कुछ ऐसा करना ठीक है कि, “आपकी असहमति का सम्मान है लेकिन…” इत्यादि। थोड़ी असहमति का तो दिल खोल कर स्वागत करें। आप यह भी कह सकते हैं, “आपकी बात ठीक है। मैं ही गलत कह गया।” या “आपका प्वाइंट नोट कर लिया है।” इत्यादि। पूर्ण असहमति की पुनरावृति हो रही हो यानी कोई बारम्बार आपसे पूर्ण असहमत हैं। यह ‘डेडलॉक’ है, जिसका हल असंभव हो रहा है। इसमें ईर्ष्या और घृणा भी जुड़ सकती है। एक-दूसरे को पढ़ कर तनाव हो सकता है। वो आपके न उत्तर देने पर भी टिप्पणियों में दूसरों से उलझते दिख सकते हैं। इसके दो पैटर्न हैं। पहला यह कि वह व्यक्ति परिपक्व हैं या मंजे खिलाड़ी है। आपसे असहमति के बाद भी आपको पढ़ते रहे हैं, और आप आश्वस्त हैं कि उन्हें तनाव नहीं होता। उनके साथ कुछ मजाकिया नोंक-झोंक चल सकती है। पर उनके पैटर्न को समझने में वक्त जरूर लगाएँ। दूसरा यह कि वह व्यक्ति नियमित रूप से क्रोधित हैं, या अपशब्द कह रहे हैं और आप यह महसूस कर रहे हैं कि वह तनाव में हैं। ऐसे में आपस में पर्दा डालना ही श्रेयस्कर होगा। इसे फ़ेसबुक के शब्दों में ‘ब्लॉक’ कहते हैं, पर यह उनकी तनाव-मुक्ति के लिए आवश्यक है। किसी भी परिस्थिति में “Thy shall do no harm.” यानी आप किसी को मानसिक या शारीरिक हानि पहुँचाने का प्रयास न करें। दूसरों की क्षति तो न ही हो।
अगला प्रश्न यह है कि अपनी क्षति कैसे रोकी जाए?
हर व्यक्ति का आत्मावलोकन ढर्रा अलग है। कई लोग सोशल मीडिया से ही दूरी बना लेते हैं। ख़ास कर भारतीय महिलाएँ अपना दायरा समेट लेती हैं। यह उचित भी है कि सोशल मीडिया से एक सुरक्षित दूरी बना कर रखी जाए। लेकिन यह आज के ‘स्मार्ट-फोन’ दौर में असंभव होता जा रहा है। आप इससे बच कर नहीं रह सकते। अकेले पड़ जाएँगे। यह अपने-आप में अवसाद का कारण है। किशोर और युवा-वर्ग में एक और बात देखी जा रही है कि वे ‘पीयर-प्रेशर’ में अवसाद-ग्रस्त हो जाते हैं। फलाँ बेहतर दिखता है, बेहतर लिखता है, बेहतर जीवन जीता है। इससे अवसाद जन्म लेता है। लेकिन, यह एक ‘वर्चुअल’ दुनिया का अंदाजा भी देता है कि बाहर की दुनिया में भी इस तरह के तनाव मौजूद हैं। यह एक तरह का ‘सिमुलेशन प्रॉजेक्ट’ है कि आप ‘वर्चुअल’ दुनिया के तनाव झेल गए, तो बाहरी दुनिया के तनाव झेलने में कुछ आसानी होगी। कूप-मंडुक नहीं रहेंगे और यह खबर होगी कि दुनिया में भांति-भांति की प्रतिभाएँ हैं। इनसे किसी भी तरह का ‘पीयर-प्रेशर’ न बनने पाए।
एक दूसरा माध्यम है तकनीक का उपयोग। तकनीक अब यह बता देती है कि सोशल मीडिया का प्रतिदिन कितने घंटे उपयोग किया जा रहा है। इसे धीरे-धीरे एक सुरक्षित स्तर तक लाया जा सकता है। हालांकि सुरक्षित स्तर की परिभाषा अब तक नहीं बनी। आज जब सोशल मीडिया प्रोमोशन का भी माध्यम है, संवाद का भी, और वांछित-अवांछित ज्ञान का भी, तो यह स्तर तय करना कठिन है। कई लोगों ने इसे सकारात्मक साधन बनाया है, और उनका सोशल मीडिया उपयोग अधिक है। इसके विपरीत कई लोगों ने इसे नकारात्मक साधन बनाया है, और उनका भी उपयोग अधिक है। तो यह स्पष्ट है कि नकारात्मक उपयोग का स्तर और समय घटाना है, या शून्य करना है।
कई बार सोशल मीडिया से ‘ब्रेक’ लेना भी नकारात्मकता घटाता है, जब पुनर्जागृत होकर लौटते हैं। सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि व्यक्ति के वास्तविक जीवन और वर्चुअल जीवन के मध्य का अनुपात क्या है? ऐसे केस मिल रहे हैं, जब सोशल मीडिया पर मुखर व्यक्ति जब किसी से आमने-सामने बात करते हैं तो एक शब्द नहीं कह पाते। उनकी मुस्कुराहट फ़ोन तक ही सीमीत रह जाती है और वास्तविक जीवन में हँस नहीं पाते। यह स्थिति उचित नहीं। सोशल मीडिया में बिताया गया समय बाहरी दुनिया में बिताए गए समय से कम हो, तो अवसाद या ‘मल्टिपल पर्सनालिटी डिसॉर्डर’ की समस्या कम होगी।
स्वयं को सुरक्षित रखने के दो अन्य मुख्य साधन हैं- धैर्य और सचेतना। अक्सर सोशल मीडिया पर प्रतिक्रिया बहुत शीघ्र आती है, जिससे बचना चाहिए। वक्त लेकर ही प्रतिक्रिया देनी चाहिए या धारणा बनानी चाहिए। यह धैर्य आवश्यक है। इसी तरह विश्लेषक क्षमता और सचेतना। बहुकोणीय विश्लेषक क्षमता हर किसी में हो, यह जरूरी नहीं। यह अनुभव और अध्ययन से ही शनै:-शनै: विकसित होता है। लेकिन ‘कन्फ्लिक्ट’ के अवसर पर सभी पक्षों को समझना और विश्लेषण करना सोशल मीडिया में भी संभव है। चेतना मनुष्य का गुण है, जिसके लिए इन्द्रिय सक्रिय रहने चाहिए। ‘परसेप्शन’ तभी तो संभव होगा। आधी बात पढ़ना, ध्यान न देना, या यूँ ही कुछ लिख देना चेतना की कमी है।
सोशल मीडिया विश्व में अपेक्षाकृत नयी विधा है, जो पिछले दो दशकों में विकसित हुई है। इसमें परिपक्वता आने में भी वक्त लगेगा और प्रयोग भी करने होंगे। किसी भी निष्कर्ष पर अभी पहुँचना कठिन है। कोई ‘गोल्डेन रूल’ भी बनाना असंभव है। लेकिन जो मूलभूत साधन हैं, जिसे हम संवाद में प्रयोग में लाते हैं, वह नहीं बदलते। समस्या तभी आती है जब हम ‘वर्चुअल’ दुनिया को वास्तविक दुनिया से अलग रखते हैं, और दोनों को दो भिन्न रूप में जीने लगते हैं। यह दोनों जब एकरूप होंगे तो समस्या नहीं होगी। यानी काल्पनिक दुनिया में जिससे हम संवाद कर रहे हैं, उनसे उसी रूप में करें जैसे वह सामने बैठे हों। जिस तरह से हम बाहर विवाद सुलझाते हैं, उसी तरह सोशल मीडिया में भी। यह बात जितनी साधारण और सहज लगती है, उतनी है नहीं। आखिर ‘कन्फ्लिक्ट’ बाहरी दुनिया में भी, ‘वर्चुअल’ में भी और मनुष्य के अपने मष्तिष्क में भी। अगर यह सहज होता, तो ‘कन्फ्लिक्ट’ होते ही क्यों? यह व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक परिपक्वता की बात है, जिसके लिए सामूहिक और बहुपक्षीय प्रयत्न से ही रास्ता निकलता है।
Previously published in Kadambini June 2019