बैजनाथ मिश्र ‘बैजू’: जो बाँवरे नहीं थे

बैजू अपने बेटे को ढूँढने कश्मीर की ओर पदयात्रा पर निकले। वहीं रास्ते में होशियारपुर जिले के एक गाँव में वह ठहरे, जो उनके नाम पर ‘बजवाड़ा’ नाम से मशहूर हुआ
Image result for baiju bavra"
Still from the film Baiju Bawra

बैजू बावरा के संबंध में संगीत इतिहासकार लिखने से कतराते हैं, क्योंकि यहाँ यह सत्य और लोककथाओं में भेद कठिन हो जाता है। लेकिन कुछ बातें कही जा सकती है। हुमायूँ के समय में संगीत के कुछ स्तंभ मौजूद थे। हुमायूँ कहना जरूरी है, क्योंकि बात अकबर से शुरू कर पूरा समयक्रम बिखर जाता है। और मौसिक़ी में हुमायूँ की रुचि और समझ अधिक मानी जाती है। अकबर अनपढ़ तो थे ही, यह कई इतिहासकार लिख चुके कि रागदारी की भी बस सतही समझ थी। तो हुमायूँ के समय जो संगीत के स्तंभ थे, उनमें राजा मान सिंह तोमर (ग्वालियर) और स्वामी हरिदास (वृंदावन) का नाम पहले लेता हूँ। दोनों की दो अलग शैली- एक विलासी राजा, तो दूसरा संन्यासी। ध्रुपद गायक तो दोनों थे ही, लेकिन मान सिंह तोमर की शैली में कुछ अलग रस भी था। कुछ इतिहासकार तो ठुमरी को भी ‘तोमरी’ का अपभ्रंश कहते हैं। यह पंद्रहवें सदी के उत्तरार्ध और सोलहवीं सदी के पूर्वार्ध की बात है। अकबर तब पैदा भी नहीं हुए थे। कुछ लोग राजा मान सिंह (आमेर) और राजा मान सिंह तोमर (ग्वालियर) को एक मान लेते हैं। आमेर के मान सिंह अकबर के समकालीन थे, ग्वालियर के मान सिंह तोमर नहीं। वह तो बाबर से भी पहले सिकंदर लोदी समय के कहे जाते हैं, और शायद हुमायूँ के आने तक मर भी गए हों।

Raja Man Singh I
Raja Man Singh Tomar

स्वामी हरिदास के शिष्यों की फ़ेहरिश्त लंबी है- रामतनु पांडे, सुजान दास, प्रभाकर-दिवाकर इत्यादि। संभव है कि राजा मान सिंह तोमर भी उनके ही किसी समकालीन या उनके शिष्य से सीखे हों, क्योंकि स्वयं हरिदास तो किसी राजा वगैरा के दरबार जाते न थे। बैजनाथ मिश्र ‘बैजू’ (नायक बैजू) मेरे गणना के हिसाब से स्वामी हरिदास के भी समवयस्क या कुछ श्रेष्ठ ही रहे होंगे। उनमें गुरु-शिष्य से अधिक मित्रवत ज्ञान का आदान-प्रदान हुआ होगा। वह कुछ समय युवावस्था में राजा मान सिंह तोमर से जुड़े रहे होंगे और सिखाया भी होगा। इसका प्रमाण यह है कि राजा मान सिंह तोमर की गुर्जर पत्नी मृगनयनी के लिए ही राग गुर्जरी तोड़ी की रचना हुई। इस राग की रचना बैजनाथ मिश्र (बैजू) ने की, और मृगनयनी उनकी शिष्या भी बनी। मृगनयनी से बैजू का कुछ इतर संबंध था या नहीं, यह मालूम नहीं। हाँ! बैजनाथ मिश्र से राग मृगरंजिनी तो जोड़ी ही जाती है, जिस राग का बैजू के बाद कोई नाम-ओ-निशां नहीं। मान सिंह की मृत्यु के बाद बैजू अपने गाँव चंदेरी लौट गए। कुछ संदर्भ यह भी कहते हैं कि उनका असल गाँव चंपानेर (गुजरात) था और चंदेरी कर्म-स्थली ही थी। चंदेरी में उस वक्त राना सांगा के एक सिपहसालार मेदिनी राय का राज (जमींदारी) था।

यूँ भी मानसिंह तोमर के बाद संगीत के गढ़ ग्वालियर से उठने लगे थे। रीवा में रामचंद्र बघेल का राज था, जो संगीत के ख़ास शौकीन थे। रामतनु पांडे, सुजानदास, प्रभाकर-दिवाकर सब वहीं दरबार में गाने लगे। बैजनाथ ‘बैजू’ चंदेरी के मेदिनी राय दरबार में गायक बने। वहीं उनके बेटे गोपाल दास भी मशहूर गायक बने। बैजू के विवाह का कोई प्रमाण नहीं मिलता, और गोपाल दास संभवत: एक गोद लिए अनाथ ही थे। यह सब सुर के जादूगर थे, और सब के साथ मिथक जुड़े हैं। सुजान दास में शक्ति थी कि राग से दीपक जला देते। और राग दीपक के आविष्कारक वही थे, इसलिए दीपकजोत कहलाए। बैजनाथ ‘बैजू’ राग मृगरंजिनी से हिरणों को रिझा लेते। और रामतनु मल्हार गा कर वर्षा करा देते। इन सबके प्रमाण मिलने असंभव हैं, पर कमोबेश लिखित बंदिशों में चर्चा है।

इन रियासतों के संगीतकारों में आपसी रंजिश होती ही रहती। यह भी होता कि कोई भाट या संदेशिया कहीं और खबर कर देता, तो वहाँ से अधिक रकम पर बुलावा आ जाता। बैजनाथ ‘बैजू’ का तो घर ही चंदेरी था, और बेटे-बहू (गोपाल-प्रभा) सब साथ थे तो वह कहीं जाना नहीं चाहते। लेकिन जब बाबर ने चंदेरी के राजा मेदिनी राय को मार दिया, तो बैजू कहाँ जाते? बैजू तो खैर फक्कड़ थे, उनके बेटे गोपाल महत्वाकांक्षी रहे होंगे। उस समय कश्मीर भी संगीत का एक गढ़ हुआ करता, और अक्सर संगीतकारों को वहाँ बुलावा आता। ऐसे ही किसी न्यौते पर गोपाल दास (नायक गोपाल) गए तो वहीं बस गए। बेटे के यूँ साथ छोड़ देने पर बैजनाथ टूट गए। पागलों की तरह घूमने लगे, जब उनका नाम ‘बैजू बावरा’ पड़ा। हालांकि इस बात पर मेरा सैद्धांतिक विरोध है, जो आगे लिखूँगा।

बैजू अपने बेटे को ढूँढने कश्मीर की ओर पदयात्रा पर निकले। वहीं रास्ते में होशियारपुर जिले के एक गाँव में वह ठहरे, जो उनके नाम पर ‘बजवाड़ा’ नाम से मशहूर हुआ (आज भी है)। यह स्थान इसलिए ख़ास है क्योंकि यहाँ से दो वर्तमान घरानों की नींव जुड़ी है। तलवंडी (अब पाकिस्तान) के ध्रुपद गायक कहते हैं कि बैजू बावरा ने उन्हें सिखाया। और शाम चौरासी (होशियारपुर) वाले कहते हैं कि उन्हें बैजू बावरा ने सिखाया। तलवंडी पहले आया, लेकिन शाम चौरासी बजवाड़ा के अधिक निकट है, तो कहना कठिन है कि किसका दावा तगड़ा है। लेकिन जब दो घराने कहें और विम वान्डर मीर की पुस्तक ‘हिंदुस्तानी म्यूज़िक इन 20थ सेंचुरी’ में भी जिक्र है, तो यह बात तर्कसंगत लगती है। मैं यहाँ इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि भारत में तानसेन के नाम से कई सेनिया घराने हैं, लेकिन बैजू नाम से कोई घराना नहीं। तो यह हम जान लें कि वर्तमान पाकिस्तान के तीन घराने बैजू बावरा से जुड़े हैं। शाम चौरासी और तलवंडी तो सीधे तौर पर, और पटियाला घराना भी शाम चौरासी से फूट कर बना।

बैजू आखिर कश्मीर पहुँचे, बहू-बेटे (गोपाल दास और प्रभा) से मिले और वापस चंदेरी लौटे। यहीं वह गल्प है कि गोपाल दास ने पहचानने से इंकार कर दिया, और कश्मीर के राजा ने बैजू और गोपाल के मध्य गायकी का द्वंद्व रखा इत्यादि। हो सकता है कि गोपाल दंभी रहे हों। राजदरबार में अकड़ और बढ़ गयी हो कि फक्कड़ पिता को पहचानने से कतरा रहे हों। गोपाल की बेटी मीरा का भी जिक्र आता है, और यह भी कि ‘राग मीरा मल्हार’ बैजू ने मीरा को सिखाया। जबकि प्रचलित धारणा यह है कि मीरा मल्हार उस मीरा से नहीं, मीराबाई से संबंधित है। दोनों मुमकिन हैं और यह भी कि बैजनाथ ने पोती के नाम पर स्नेहपूर्वक राग रच दिया हो।

सच पूछिए तो मुझे उनको ‘बावरा’ कहे जाने में बस फ़न्तासी नजर आता है। यह रोमान्टिसिज़्म संगीत इतिहासकारों में आम है कि बैजू ‘बावरा’ बन गये और अलाँ-फलाँ हुआ। अगर बावरा ही होते तो जब रीवा में संगीतकारों का सम्मेलन हुआ तो बैजू ने भला ऐसा क्या गाया कि रामतनु पांडे भी वाह-वाह कर बैठे। हाँ! बेटे के कश्मीर जाने से जब वह व्यथित थे, तो उनके मन में कई खयाल आए होंगे। यह भी खयाल आया होगा कि रंजिश में रीवा के संगीतकारों ने गोपाल को बहला (उठवा) लिया, कश्मीर भेज दिया। लेकिन, इस तरह की शंका होना भी बावरा होना नहीं साबित करता। पिता का ऐसे शंकित होना वाज़िब है, ख़ास कर जब दोनों रामतनु और गोपाल दास समवयस्क युवा संगीतकार थे और पड़ोसी रियासत के थे। इस समय अगर कमबुद्धि कोई हुआ तो तानसेन के पुत्र बिलासख़ान ही हुए जो तोड़ी के बदले भैरवि गा बैठे, जो ‘बिलासख़ानी तोड़ी’ कहलाया। बैजू के परिवार में बावरा शायद कोई न हुआ।

खैर, बैजू की मृत्यु पहले हो गयी और अकबर की नजर उन पर नहीं पड़ी। पुन: कह दूँ कि बैजू तानसेन से उम्र में काफी बड़े रहे होंगे और वह एक मुकम्मल उम्र में ही मरे। तानसेन के समवयस्क उनके पुत्र गोपाल दास रहे, बैजू स्वयं नहीं। बैजू के मृत्यु चंदेरी में हुई, जहाँ उनकी समाधि भी है। मेरा मानना है कि बैजू की वास्तविक जीवन काल-अवधि 1470 ई.-1560 ई. रही होगी। यानी, तानसेन से कुछ तीस-चालीस वर्ष ज्येष्ठ। इस काल-अवधि को मानने से बैजनाथ मान सिंह तोमर के समय में युवा और अकबर के काल से पूर्व मर जाते हैं। यह सभी तथ्यों पर सही बैठता है। तो तानसेन (तब रामतनु) और बैजू जब रीवा में एक-दूसरे के समक्ष गा रहे थे, तो तानसेन कुछ बीस-तीस बरख के और बैजू साठ-सत्तर बरख के थे। दोनों ने गाया कमाल ही होगा, और रामतनु ने बैजू का आदर ही किया होगा। बाकी रंजिश, हार-जीत की बातें फ़िल्मी हैं।

बैजू के बाद भी रीवा के बघेली राजा के दरबार में संगीत चलता रहा, लेकिन अब दिल्ली में युवा अकबर का राज था। जब अकबर को एक दिन संगीत की सनक चढ़ी तो रियासतों से सभी नामचीन संगीतकारों को बुलवा लिया। रामतनु पांडे, सुजानदास, प्रभाकर-दीवाकर सब चल दिए। अकबर के समय इन गायकों की उम्र अब पचास-साठ वर्ष से ऊपर थी। यह कहानी कि अकबर एक दिन स्वामी हरिदास को सुन कर चकित रह गए, तभी संभव है जब हरिदास उस वक्त जीवित होंगे। जीवित भी होंगे तो नब्बे वर्ष से ऊपर ही होंगे। यहाँ भी यह तर्क ठीक बैठता है कि बैजू हरिदास से समवयस्क या ज्येष्ठ ही थे, क्योंकि बैजू तो मर चुके थे।

खैर, रामतनु पांडे ही बने तानसेन, जिनके नाम पर तमाम सेनिया घराने चल रहे हैं। सुजानदास बने हाजी सुजान ख़ान, जो आगरा घराने के प्रवर्तक कहे जाते हैं। अकबर ने सुजान ख़ान को आगरा में जमीन दे दी थी। और प्रभाकर-दिवाकर बने चाँद ख़ान और सूरज ख़ान। पर्यायवाची ऊर्दू शब्द ही तो हैं। चाँद-सूरज ख़ान को जमीन मिली तलवंडी में। वही तलवंडी जहाँ बैजू के चेले बसते हैं। मुझे लगता है कि इनमें कुछ संबंध रहा होगा। कमाल की बात है कि उस जमाने में यह चाँद-सूरज जोड़े में गाते थे, और इन घरानों (तलवंडी और शाम चौरासी) में अब तक लोग जोड़े में ही गा रहे हैं। सलामत अली-नज़ाकत अली के बाद अब शराफत अली और शफ़ाकत अली। क्या यह संभव है कि बैजू बावरा में अर्थ ‘बावरा’ न होकर किसी दूसरे जोड़ीदार से हो? बैजू और बावरा? अगर बावरा पागल ही होता तो कोई गाँव का नाम ‘बजवाड़ा’ क्यों रखता? तो क्या यह संभव है कि बजवाड़ा का अर्थ हो- ‘बैजू का वाड़ा’ या बैजू का किला? बजवाड़ा ही टूटते-टूटते ‘बैजू बावरा’ बन गया हो? इन प्रश्नों के उत्तर मिलने कठिन हैं। कुछ दूसरी गुत्थियाँ सुलझाता हूँ।

बैजू के नाम से एक और घराना अब जोड़ता हूँ। दरअसल नायक गोपाल (बैजू के पुत्र?) की चर्चा कई घराने वाले करते हैं। इसमें किराना घराना वाले ख़ास कर। यह कहा जाता है कि नायक गोपाल बाद में कैराना आकर बस गए थे। और उनके ही वंशजों के शाग़िर्दों में अब्दुल करीम ख़ान, सवाई गंधर्व, भीमसेन जोशी तक हुए। अगर यह सच है तो संगीत का एक विराट घराना बैजू से जुड़ जाता है। लेकिन इस तथ्य में एक दोष है। एक गोपाल नायक अलाउद्दीन ख़िलजी के समय देवगिरी (महाराष्ट्र) में भी थे, और वह अमीर ख़ुसरो के समकालीन थे। यानी बैजू से वर्षों पहले। अब यह कहना असंभव है कि बैजू पुत्र गोपाल कैराना में बसे, या देवगिरी से गोपाल नायक दिल्ली दरबार होते हुए कैराना में बसे, या दोनों ही बातें बेबुनियाद हैं। लेकिन यह बात तो है ही कि अगर महान् संगीतकार गोपाल दास कश्मीर गए और उस समय के सभी फ़नकार अकबर के दरबार में पहुँच गए। तो आखिर गोपाल दास कहाँ गए? क्या वह भी मुसलमान बन कर या किसी और रूप में गायन करते रहे? मुझे इस बात में अधिक दम लगता है कि कैराना में स्थापित संगीत बैजूपुत्र गोपाल की ही देन है।

‘बैजू-बावरा’ फ़िल्म की कहानी से इतिहास को जोड़ना ठीक नहीं। कालक्रम के हिसाब से या वैज्ञानिक तर्कों के हिसाब से यह पूरी कहानी बस एक गल्प नजर आती है। अगर वह अकबर के समय होते और इतना कुछ हुआ होता, तो अबुल फ़जल ने आईन-ए-अकबरी में पंद्रह गायकों का जिक्र किया लेकिन बैजू को भूल गए? बैजनाथ अकबर से पहले ही थे, और वह फक्कड़ निर्मोही जरूर थे। पागल बावरे न थे।

लेखक की पुस्तक ‘वाह उस्ताद’ का लिंक- https://www.amazon.in/Wah-Ustad-Praveen-Kumar-Jha/dp/9389373271

कुछ अन्य लेख-

१. https://www.firstpost.com/living/dhrupad-maestro-baiju-bawra-was-overlooked-by-history-can-his-hometown-chanderi-change-that-4335821.html

२. https://scroll.in/magazine/917489/the-legend-of-baiju-bawra-was-there-ever-a-singer-who-could-melt-marble-with-his-music

३. https://in.news.yahoo.com/dhrupad-maestro-baiju-bawra-overlooked-044248117.html

 

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You May Also Like
Morning Raga Poster
Read More

कौन से राग दे सकते हैं बेहतरीन सुबह?

सुबह आखिर कौन से राग सुने जाएँ कि दिन खूबसूरत बन जाए? इस लेख में चर्चा है ऐसे ही कुछ रागों की, जिससे आप प्लेलिस्ट बना सकते हैं।
Read More
Bihar Music Tradition Poster 1
Read More

बिहार की संगीत परंपरा

बिहार में हिंदुस्तानी संगीत की सभी विधाएँ फली-फूली। ध्रुपद, खयाल, ठुमरी, वादन, नृत्य, संगीत शास्त्र सभी के गढ़ रहे। आज भी उनमें से कई मौजूद हैं।
Read More
Read More

राग भैरवि

भैरवि (या भैरवी) को सदा सुहागन रागिनी तो कहते ही हैं, लेकिन इसका विस्तार इन उपमाओं से परे है। शायद ही कोई संगीत कार्यक्रम हो, जिसका अंत भैरवि से न होता हो। और शायद ही कोई सुबह हो, जब दुनिया के किसी एक कोने में भैरवि न गाया या सुना जा रहा हो।
Read More