3-6 बजे सुबह (ब्रह्म मुहूर्त)
सूर्योदय हुआ नहीं, मगर उसकी आहट सुनाई देने लगी है। रात का रंग बदलने लगा है। हमारे सुसुप्त पड़े दिमाग में कुछ मामूली सी हलचल शुरू हुई है। आने वाले दिन की कुंजी इसी प्रहर में है। यह माकूल और खुशनुमा गुजरा तो आगे भी गुजर जाएगा।
Raag Basant
हमने शायद बसंत-बहार शब्द सुना हो। पतझड़, सावन, बसंत, बहार। बसंत को बहार से जोड़ कर लगता है कि बसंत है तो बहार आएगी ही। क्या सुबह-सुबह आधी नींद में राग बसंत सुन कर भी दिन ख़ुशनुमा गुजरेगा?
एक इंटरव्यू में रोशन-आरा-बेग़म (किराना घराना) को कहते सुना कि राग बसंत अपने नाम के अनुसार खुशनुमा नहीं। वह कहती हैं-
’बहार में तो बहार है, लेकिन बसंत में नहीं’
जब से यह बात सुनी, बसंत मुझे भी अचानक उदास लगने लगा। मैं कभी-कभार आधी नींद में सुनता था, बंद कर दिया। लोग अब गाते भी कम हैं। लेकिन, बसंत के फूलों से बस उन्माद भी तो नहीं जोड़ा जा सकता।
बसंत ऋतु के दोनों स्वरूप हैं। अगर फूलों की बहार है तो प्रेम की चाहत भी है। राग बसंत में उसका गंभीर अंग है और राग बहार में उल्लास। किराना घराना की बात कही, उनका तो यह प्रियतम राग है। रोशन-आरा-बेग़म किराना घराना की ही हैं। उस घराने के अब्दुल करीम ख़ान से भीमसेन जोशी तक ने इस बंदिश को क्या खूब निभाया है-
फगवा बृज देखन को चल री/फगवे में मिलेंगे कुंवर कान्हा/अब बांट चलत बोले कगवा/आयी बहार सकल बन फूले/ रसीले लाल को अगवा/फगवा बृज देखन को चल री
इसी राग की एक द्रुत (fast) बंदिश से अब्दुल करीम ख़ान ने पटियाला घराने के आलिया-फत्तू को जवानी के दिनों में टक्कर दी थी। वह पंजाबी और ब्रजभाषा मिश्रित बंदिश है-
गैली गैली एंदी तोरी/ गरवा लागे रंग बरसे/ ऋतु बसंत मान लागे/ जोबन भांति माथे पे तोरी/ सोलह सिंगार कर आभरन/ पायल पैरन/ अबीर गुलाल लिए बरजोरी/गैली गैली एंदी तोरी
यह दोनों भीमसेन जोशी की आवाज में (Recording 1 and Recording 2) और एक अब्दुल करीम ख़ान की आवाज में यू-ट्यूब पर मिल जाएगा। भीमसेन जोशी तो अपनी प्रस्तुति अक्सर इसी राग से समाप्त करते थे। यह उदास तो नहीं, गंभीर प्रकृति का ज़रूर लगता है। जैसा ब्रह्म काल का, जैसा सूर्योदय से पूर्व हमारा मूड होता है, बिल्कुल उसी प्रकृति का।
मैंने यह महसूस किया कि वादन में बसंत अधिक खूबसूरत लगता है। गायन में हर गायक का बरतना अलग है। रज़ब अली ख़ान (देवास) के ऊँचे तानों में एक बसंत है, जो कमाल की है, लेकिन ब्रह्म-मुहूर्त में सुन कर शायद कर्णप्रिय न लगे। वादन में कुछ हद तक अनुशासन होता है तो पसंद आ जाता है।
एक बार उस्ताद इनायत ख़ान (इटावा/इमदादख़ानी सितार घराना) लंदन में बजा रहे थे और विलायत ख़ान महज छह वर्ष के थे तो नींद आ गयी। जब उनकी नींद खुली तो उन्हें सब कुछ पीला-पीला नजर आ रहा था।
उन्होंने कहा, “अब्बा हुजूर! मुझे सब पीला नजर आ रहा है।”
इनायत साहब ने हँस कर कहा, “विलायत मियाँ! घबराने की बात नहीं। यह बसंत का रंग है और मैं बसंत ही बजा रहा था।”
बसंत के मूड को दर्शाने के लिए दरभंगा घराने की एक बंदिश है-
फुलवा बिनत डार डार/ गोकुल के बृज नारी/ चन्द्र बदन कमल नयन/भानु की ललीरी/ऐ हो चंचल कुमारी/रखियो आँचल सम्भारी/आएँगे नन्द लाल/देखि के डरीरी
इसमें पंडित विदुर मल्लिक और प्रेमकुमार मल्लिक की रिकॉर्डिंग मुझे भारत में नहीं मिली। आखिर जर्मनी से मंगवानी पड़ी, जो यहाँ क्लिक कर मिल जाएगी।
Raag Hindol
हिन्डोल क्या कमाल का राग है!
यह राग पंडित ओंकारनाथ ठाकुर ने तानाशाह मुसोलिनी के सामने गाया तो उनके होठ फड़कने लगे, पसीना आ गया। हिंडोल में यह झकझोर देने वाली शक्ति न जाने कैसे आती है? जब बदन सुस्त पड़ा हो, तो हिंडोल शायद जगा दे। संगीत थेरैपी में शोध करने वाले इसे गठिया में उपयोगी कहते हैं कि इसे सुन कर शरीर में ऊर्जा का संचार होगा।
एक कुमार गंधर्व की छोटी प्रस्तुति सुनते हुए मुझे यही लगा कि जिस गति से नीचे के स्वर से ऊँची तानों में उछल-कूद कर रहे हैं, लगा कि कोई बदन हिला कर उठा रहा है। हिंडोल का तो अर्थ ही झूला है, तो इस राग में बस झूल जाना है। कहते हैं इसे मलेरिया के बुखार में गाया जाता तो बदन पसीने से तर-बतर हो जाता और ज्वर उतर जाता। खैर, उस पर तो डाक्टरी पढ़ाई के बाद टिप्पणी कठिन है, मगर राग के प्रकृति की बात है।
यह मात्र पाँच स्वरों का राग गाना आसान नहीं। बेतिया के ध्रुपदिए चार स्वरों से हिंडोल गाते हैं। यह बात मैंने उस घराने के पंडित इंद्रकिशोर मिश्र से सुनी।
इसके निषाद (नि) को उठाने में गायकों को मुश्किल आती है, लेकिन अगर सही लग गया तो इस राग में अद्भुत् मोहकता है। पं. जसराज की एक बंदिश है ‘लाल कृष्ण झूले’, उसमें हिन्डोल के झूलने का मूड है। मेरी एक और प्रिय प्रस्तुति है ध्रुपद में पंडित प्रेम कुमार मल्लिक जी का गाया हिन्डोल। यह सभी यूट्यूब पर हैं, और इसलिए मैंने लिंक कर दिए हैं। एक पं. भीमसेन जोशी जी की गायी द्रुत बंदिश सुनिएगा–
लाल जिन कर हो माई/संग करे बरजोरी/मोरी अँखियो में पड़त गुलाल/मन बस करबे को/मन हर लीनौ/मोरे जिया में बसै हो ख्याल।
इसी कड़ी में राग ललित और भटियार भी हैं। सुबह जल्दी उठने वाले इन रागों को अपनी सूची में शामिल कर दिन बेहतर कर सकते हैं।
6-9 बजे सुबह: ‘गुड मॉर्निंग’ राग
Raag Bhairavi
यह कहना ग़लत न होगा कि मैंने जाने-अनजाने सबसे अधिक भैरवि ही सुना। एक टोटका बन गया कि सुबह भैरवि से हो तो दिन अच्छा ही जाता है और दूसरा यह कि शक्ति का उपासक हूँ। उस्तादों की भी सुबह भैरवि के रियाज से ही अक्सर होती है। Morning Raga नाम के रिकॉर्डिंग भैरवि से भरे पड़े हैं। दूरदर्शन का लोकप्रिय गीत ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ राग भैरवि पर बनाया गया।
उस्ताद विलायत ख़ान ने अपने जीवन में सबसे अधिक भैरवि बजाया। जब वह ‘भवानी दयानी, सकल बुध ज्ञानी’ गुनगुनाते तार छेड़ते हैं, तो जैसे साक्षात् देवी सामने नजर आती हैं। राग बैरागी भैरव हो या भैरवि, सूर्योदय तो इनके साथ ही हो।
भक्ति के शृंगार रस में भैरवि की एक बड़ी प्यारी बंदिश है पं. जसराज की–
कहो जी तुम कैसे बने हो/मोरे मन की न पूछो बतियाँ/औरन सो रंगरेलियाँ/जावो जी श्याम हम तुमसे रूठे/लाख जतन करो तुम बड़े झूठे/काहे परत तुम हमरे पैंय्याँ।
एक व्यक्ति के बारे में मैं कहूँगा और यह बात कई संगीत-मर्मज्ञों ने भी कहा कि उनसे बेहतर राग भैरवी किसी ने न गायी। एक कवि सुशोभित सक्तावत ने अपनी कविता में भी यह पंक्ति लिखी है कि कुंदनलाल सहगल से बेहतर भैरवी कोई न गा सका। चाहे वह ‘बाबुल मोरा नैहर छूटो जाए’ हो या ‘जब दिल ही टूट गया’, इतनी सहजता और नियंत्रण से भैरवी गाना बहुत कठिन है।
Raag Bilawal
एक और राग की वजह से सुबह स्वस्थ मुस्कुराती रहती है- बिलावल। इसी राग में ‘बावर्ची’ फिल्म का गीत ‘भोर आई गया अंधियारा..’। बिलावल चाय के साथ सुनें, या सुबह ऑफिस के सफर में; पूजा-पाठ के समय या बिस्तर पर अखबार पढ़ते, यह अपना चयन है।
बिलावल की एक बंदिश ग्वालियर घराने से चलकर आयी और अब मराठी गायकों का ट्रेडमार्क है-
कवन बँटरिया गइलो/माई देहो बताय/मैं घरवा गत माइ/चूरिया भइलवा/लेने गई सौदा रे/अरे हटवारे/इतनी गली में गइलो कवनवा।
गाया कई लोगों ने, किशोरी अमोनकर जी की गायी बंदिश जरूर सुननी चाहिए।
बिलावल का लोकप्रिय रूप अल्हैया बिलावल है, जिस पर हमारे राष्ट्रगान ‘जन गण मन’ की धुन बनी। बिलावल के एक और रूप देवगिरी बिलावल की दो प्रस्तुतियाँ मैं किसी और वजह से सुनने कहूँगा। एक गंधर्व महाविद्यालय के निदेशक रहे पंडित एस. रतण्जन्कर ने गाया है। जाहिर है कि एक संगीत-शिक्षक होने के नाते शुद्ध ही गाएँगे। वहीं दूसरी ओर इसे अलाउद्दीन ख़ान के सरोद पर सुनिए। वहाँ लगेगा कि कुछ अलग बज रहा है। अंतर एक उस्ताद और कॉलेज प्रिंसिपल में होता है। उस्ताद उन्मुक्त होकर विस्तार लेते हैं, जबकि भातखंडे प्रणाली के संगीत-मार्तंड नियमों से बँधे हैं।
Raag Bibhaas
सुबह के राग किशोरी अमोनकर जी ने खूब गाए हैं। एक उनकी गायी सदारंग की बंदिश है ‘मुरारी प्रीत पीहरवा’। यह राग बिभास में है। इसे सुनते वक्त ध्यान देंगे कि मुखड़ा बनाना आखिर है क्या? गायक लंबी तान लेकर वापस वही मुखड़ा गाता/गाती है। इससे श्रोता उस बंदिश से सीधे जुड़ जाते हैं और गुनगुनाने लगते हैं। इस बंदिश में किशोरी जी का वही रूप है जो उनकी मशहूर बंदिश ‘सहेला रे’ में है।
यही ‘मुरारी प्रीत पीहरवा’ बंदिश मुकुल शिवपुत्र जी ने भी बड़ी खूबसूरती से गाया है और उनकी गायकी में गमक का उपयोग ध्यान देने योग्य है। मुकुल जी को सुनना जैसे किसी संत को सुनना। इनकी गायकी में कृष्ण-भक्ति सुन यूँ लगता है कि वृंदावन पहुँच गए। सामने एक इंद्रधनुष है, गायों का झुंड; चारों तरफ हरियाली और खुशनुमा मौसम।
बिभास की सुबह भैरवि की सुबह से भिन्न होगी। इसका रंग अलग है। मुग़ल बादशाह मुहम्मद शाह ‘रंगीला’ की सुबह नियामत ख़ान (सदारंग) के गाए बिभास से ही होती।
मैंने ग़ौर किया कि बिभास की कई बंदिशों में मुरारी (कृष्ण) हैं। एक मल्लिकार्जुन मंसूर की गायी बंदिश है- ‘नर हरि नारायण, गिरिधर गोपाल मुरारी’। इस बंदिश को सँभाल कर रख लें क्योंकि यहाँ मंसूर का रंग कुछ अलग है। अमूमन गमक और तान की कलाबाजी करने वाले मंसूर बहुत सहजता और कोमलता से गा रहे हैं। शायद यह राग ही कोमल है, जिसमें खींच-तान का स्कोप कम है। ख़्वाह-म-ख़्वाह आंदोलित कर यह राग बिगड़ जाएगा।
समकालीन गायकों में तुषार दत्त की गायी बिभास में एक बंदिश सुनी- ‘भोर भय बन बन चिड़िया’। इसमें कृष्ण नहीं हैं, लेकिन बंदिश बेहतरीन है।
Raag Todi
एक सवाल मेरे मित्र ने पूछा कि सुबह ऑफिस जाते वक्त ट्रैफिक के बीच गाड़ी में, या बस-मेट्रो में कौन सा राग सुनूँ? मुझे लगता है कि भैरवि या विभास से बेहतर राग तोड़ी का कोई रूप रहेगा।
वह भी अदल-बदल कर कि सफर में एकरसता न हो। कभी डागर साहब की रूद्रवीणा पर शुद्ध तोड़ी सुन लें, कभी किशोरी जी की मियाँ की तोड़ी। दिल्ली-बंबई वाले जो लंबी यात्रा करते हैं, वह तोड़ी कान में लगाए बस-ट्रेन में सफर कर सकते हैं।
तोड़ी बिस्तर पर उठते ही सुनना ठीक नहीं, यह देर सुबह का राग है। रागमाला पेंटिंग में मैंने देखा कि तोड़ी एक महिला रूप में वीणा लेकर खड़ी हैं। किसी चित्र में शिवलिंग की आराधना में, तो कहीं हिरण लुभा रही है। मैंने यह कल्पना की कि शायद आज के जमाने में वीणा लिए तो नहीं, लैपटॉप बैग लिए किसी बस-मेट्रो में खड़ी मिलेगी। इसलिए कहा कि यही राग ठीक रहेगा।
तोड़ी भी कई हैं। सबसे पुरानी है गुर्जरी तोड़ी। राजा मान सिंह तोमर की एक गुर्जर जाति की पत्नी थी- मृगनयनी। उन्हें उपहार स्वरूप उन्होंने ‘गुर्जरी तोड़ी’ दी थी और जिसे संभवत: बैजू बावरा ने गाया था।
तानसेन के पुत्र बिलासखान जब मियाँ की तोड़ी गाने बैठे तो ग़लती से भटक गए। अवरोह में पंचम (प) जोड़ दिया और भैरवि की तरह गा दिया। यह ‘बिलासख़ानी तोड़ी’ कहलाया।
गाड़ी से ऑफ़ीस जाते वक्त बड़े ग़ुलाम अली ख़ान की एक गुर्जरी तोड़ी बंदिश मैंने सुनी-
भोर भयी तोरी बाट तकत पिया/नैन अलसाने भये/सगरी रैन कहाँ जागे/हम संग मुख की बतियाँ/करत हो सदारंग भरी रतियाँ/सौतन के भाग जागे।
‘दिल्ली 6’ फ़िल्म में बड़े ग़ुलाम अली ख़ान की बुलंद आवाज के साथ श्रेया घोषाल ने भी अपनी आवाज डाल दी है, और जम भी गया।
Raag Gunakali
एक सुबह बड़े गुलाम अली ख़ान के पोतों उस्ताद मजहर अली ख़ान और जवाद अली ख़ान को आकाशवाणी के ‘रागम’ चैनल पर सुन रहा था। वे राग गुणकली गा रहे थे। इस राग में स्वर पाँच ही हैं, पर उसमें धैवत और ऋषभ का जो आंदोलन है, वह गौर करने लायक है। अगर आंदोलित न होते तो यह राग दुर्गा बन जाता। रात को गाया जाता। मात्र दो स्वरों के आंदोलन से यह सुबह का राग बन गया।
इस राग में सुबह का उल्लास कम, करुणा रस अधिक है। बिस्मिल्लाह ख़ान की सुबह गुणकली से ही होती, और यह शहनाई पर जमता भी खूब है। शायद स्वर कम हैं और दो स्वरों पर आंदोलन शहनाई के लिए सुलभ हो। रामकली तो गुणकली से भी कठिन है। मैंने पहली बार बड़े ग़ुलाम अली ख़ान के पोतों को सुना। अपने पितामह की बुलंद आवाज छन कर कुछ तो आयी है। वही गरजती ध्वनि। राग गुणकली पटियाले वाले बेहतरीन गाते हैं। बड़े ग़ुलाम अली ख़ान तो गाते ही, सलामत-नजाकत अली ख़ान भी खूब गाते।
मैंने स्वयं जब संगीत सीखना शुरू किया, तो पहला राग सीखा – राग भैरव। सुबह जब भी रियाज़ करने बैठता हूँ, तो इच्छा होती है कि भैरव गा लूँ। ख़ास कर रविवार की सुबह। लेकिन, भैरव और भैरवी की चर्चा अलग से भी है। यह तो एक खाका रखने के लिए कुछ प्रातः कालीन रागों की चर्चा की।
In this article, Author Praveen Jha describes the varieties of Morning Ragas.