घरानों का सफर

हिंदुस्तानी संगीत है तो घराने हैं। घराने हैं, तो कथाएँ हैं। कथाएँ हैं, तो उनमें रस है। उतना ही, जितना कि संगीत में। क्योंकि कथाएँ बनी ही संगीत से है। मुश्किल ये है कि यह कोई बताता नहीं

हिंदुस्तानी संगीत है तो घराने हैं। घराने हैं, तो कथाएँ हैं। कथाएँ हैं, तो उनमें रस है। उतना ही, जितना कि संगीत में। क्योंकि कथाएँ बनी ही संगीत से है। मुश्किल ये है कि यह कोई बताता नहीं। अब किसी ने बैठक में सुना दी, किसी ने यूँ ही बातों-बातों में बता दी, और कभी किसी ने लिख दी। पर कोई एक व्यक्ति हो, जो हिंदुस्तानी संगीत से जुड़ी तमाम कथाएँ सुना दे, शायद न मिले। आप कहेंगें कि इसकी ज़रूरत ही क्या है? किस्से-कहानियों से भी भला क्या संगीत बना है? अब यही तो ख़ासियत है। यह संगीत जितना शांत, सौम्य और एकांतशील नजर आता है, उतना ही यह दरबारी माहौल, पान-सुपारी की बैठक, वाह-वाही और इरशाद के बीच बढ़ा है।

घरानों की शुरूआत ग्वालियर से ही हुई, तो यह सफर भी वहीं से शुरू हो।

उस्ताद निसार हुसैन ख़ान का एक अलग रूतबा था। तस्वीरों में जितना देखा, और बैठकों में जैसा उनके बारे में सुना, क्या खूब लंबे-चौड़े बुलंद उस्ताद रहे होंगें! अब एक दफे कहीं ट्रेन से बिना टिकट जा रहे थे, तो उतार दिए गए। उस्ताद वहीं प्लैटफॉर्म पर बैठ कुछ ‘चीज’ गाने लगे। उनकी यह तान सुन ट्रेन रोकनी पड़ी। गाड़ी से उतर कर सभी यात्री नीचे आ गए और वहीं प्लैटफॉर्म पर महफ़िल जम गई। कैसी होगी आखिर संगीत की शक्ति कि ट्रेन रूक जाए?

अब वह कलकत्ता गए तो गवर्नर साहब को रेलगाड़ी तराना गाकर सुनाया। ट्रेन की आवाज की तर्ज पर विलंबित और द्रुत का साम्य बना कर रचा गया तराना। गवर्नर साहब खुश हुए तो ईनाम पूछा। उस्ताद ने आखिर इस बेटिकट की झंझट से निजात पाने के लिए ‘रेल पास’ ही मांग लिया।

ग्वालियर घराने से ही अन्य घराने उपजे। ग्वालियर के बालकृष्ण इचलकरंजीकर जी ने विष्णु दिगंबर पुलुस्कर को सिखाया। वही पुलुस्कर जिनका गाया ‘रघुपति राघव राजा राम’ महात्मा गांधी को इतना भाया कि दिग्विजय कर गया। सीनीयर पुलुस्कर की रिकॉर्डिंग अब भले न मिले पर लोग कहते हैं कि उनके शिष्य ओंकारनाथ ठाकुर में उनकी आवाज कुछ हद तक आयी। आपने उनका गाया ‘वंदे मातरम्’ सुना होगा जो उस आजादी की रात संसद में गाया गया।

आजादी से पहले जब उनकी चर्चा मुसोलिनी ने सुनी, तो बुलावा भिजवाया। मुसोलिनी के समक्ष उन्होनें वीर रस का ‘राग हिंडोल’ गाया, तो मुसोलिनी को पसीना आ गया, हाथ-पैर कांपने लगे और आखिर उन्होनें कहा, “स्टॉप!” इसके बाद उन्होनें राग छायानट गाया, जिससे करूणा का भाव में डूब कर मुसोलिनी अपनी वायलिन लेकर आ गए और बजाने लगे।

यह रागों से भावनाएँ जगने या रोग ठीक होने में विज्ञान की चर्चा कई बार भटक जाती है। लोग कहते हैं कि अब्दुल करीम ख़ान साहब का कुत्ता भी राग में भूंकता था। यह अतिशयोक्ति भी संगीत की बैठकों का हिस्सा ही है। उस्तादों में एक खुदा या ईश्वर का नजर आना। पर कुछ चमत्कार तो सबके समक्ष ही हैं।

टी.बी. से कुमार गंधर्व का फेफड़ा खत्म हो जाना, और फिर गायन में कीर्तिमान स्थापित करना। अलादिया खान साहब की अपनी आवाज अचानक गुम हो जाना, और एक दिन नयी आवाज में लौटना। बेगम अख्तर का गाना छोड़ते ही बीमार होना, और वापस स्टेज़ पर आते ही ठीक हो जाना, और फिर से सुर टूटते ही मर जाना। संगीत और शरीर के तार तो जुड़े ही हैं।

आज भी संगीत के तमाम घरानों की उपस्थिति कमोबेश नजर आती है। अब भी कई अवशेष हैं। आगरा घराने से सभी खान साहब चल बसे, पर कहीं न कहीं कोई वसीम अहमद खान साहब आज भी गा रहे हैं। ग्वालियर है, जयपुर है, पटियाला है, कैराना है, इमदादखानी है, मेवाती है, बनारस है, रामपुर है, इंदौर है, और ध्रुपद की बानी हैं। गर खो गया तो भिंडीबाज़ार खो गया। मुंबई की भीड़-भाड़ में वो मशहूर घराना, जो कभी लता जी, आशा जी और मन्ना डे को गुर दे गया, अब खत्म हो गया।

मेरी भी यह छोटी सैर अब समाप्त होती है। कई किस्से रह गए। वह गंडा बंधाने की कहानियाँ। वह बंटवारे में अलग हुआ संगीत। वह फैयाज़ खान के मज़ार को, और रसूलन बाई के घर को दंगों में नेस्तनाबूद करना। वह सरकारी पेंशनों का बंद हो जाना। घरानों का देश से पलायन होना, और अमरीका-यूरोप में बस जाना। यहाँ से संगीत का जाना, और वहाँ से आना। और फिर फ़्यूजन हो जाना। मुझे शिकायत नहीं, संगीत का सफर तब भी अनवरत चलता था, अब भी चल रह रहा है। हाँ! जड़ों को खाद-पानी मिले तो यह फलता-फूलता रहेगा।

(यह लेख पहले ‘प्रजातंत्र’ अखबार में प्रकाशित। घरानों के क़िस्से पढ़ने के लिए लेखक की किताब वाह उस्ताद इस लिंक पर उपलब्ध- https://www.amazon.in/Wah-Ustad-Praveen-Kumar-Jha/dp/9389373271 )

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