संगीत के पहले दस मिनट

एक विश्वविद्यालय आयोजन याद आता है। किनकी प्रस्तुति थी, यह नहीं कहूँगा लेकिन दर्शकों में कॉलेज़ के लड़के बैठे थे। बमुश्किल पांच मिनट में पीछे से खिसक कर भागने लगे, तो दरवाजे पूरी तरह खुलवा ही दिए गए। जब गायक बंदिश पर आए, कई उसी दरवाजे से आकर बैठने भी लगे, और आखिर अच्छी-खासी युवाओं की भीड़ आ ही गयी

आलाप ही राग का मूल है। द्रुत शुरू हुआ, समझिए राग खत्म।

– पंडित प्राणनाथ

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हिंदुस्तानी संगीत का पहला दस मिनट शुरूआत में झेलना कठिन है। मैं तो नहीं टिक पाया था। मैं सोचता रहा कि आखिर गीत कब आएगा? एक ही स्वर पर क्यों अटके पड़े हैं? कोई शब्द क्यों नहीं कह रहे? एक विश्वविद्यालय आयोजन याद आता है। किनकी प्रस्तुति थी, यह नहीं कहूँगा लेकिन दर्शकों में कॉलेज़ के लड़के बैठे थे। बमुश्किल पांच मिनट में पीछे से खिसक कर भागने लगे, तो दरवाजे पूरी तरह खुलवा ही दिए गए। जब गायक बंदिश पर आए, कई उसी दरवाजे से आकर बैठने भी लगे, और आखिर अच्छी-खासी युवाओं की भीड़ आ ही गयी। लेकिन असल तो उसने सुना, जो आलाप से बैठा रहा। जो बाद में आए, उनको तो बस ‘टिप ऑफ़ आईसबर्ग’ नसीब हुआ। हालांकि यह कोई अजीब बात नहीं। खयाल गायकी के सिरमौर उस्ताद हद्दू ख़ान जब कलकत्ता गाने गए तो एक-एक कर सब हॉल खाली कर गए। उस जमाने में बंगाली दर्शकों को ध्रुपद की आदत थी; जैसे आज हमें सुगम संगीत या पॉप की आदत है। यह रस आने में मिनट-घंटे नहीं, वर्षों लगते हैं। मैं किताब भले लिख दूँ लेकिन कुछ प्रस्तुतियों के मध्य से अब भी मैं खिसक सकता हूँ। पूरी प्रस्तुति सुन कर भी कई बार यह नहीं कह सकता कि कौन सा राग है। हाँ! सुई अब कुछ-कुछ आस-पास अटकने लगी है।

पहले दस मिनट के नियम भी बदल रहे हैं कि आपके हाथ क्या आ रहा है। मैं एक बार यशवंतराव बुवा जोशी का राग यमन ‘यू-ट्यूब’ पर सुनने लगा। पांच मिनट के आलाप के बाद ही बंदिश शुरू हो गयी। शक हुआ कि इतने शुद्घ गायक ‘शार्ट-कट’ कैसे मार गए? ‘आलाप’ एक ‘बिल्ड-अप’ है। वह अगर छोटा हो, तो हम उस ऊँचाई तक नहीं पहुँच पाते। आनंद खालिस बंदिश या तराने हो, तो भी जरूर आता है, लेकिन यह संगीत का चरम नहीं। जिसने भी ‘यू-ट्यूब’ पर डाला, उसने आलाप काट लिया। या शायद उस वक्त पुराने 78 rpm रिकॉर्ड रहे होंगे। जैसे, अब्दुल करीम ख़ान का आलाप मिलेगा ही नहीं।

छोटे आलाप की एक दूसरी वजह भी है। अलादिया ख़ान जैसे गायक को राजाओं ने इतना गवाया कि आवाज ही चली गयी। जब लौटी तो लंबा आलाप न गा सके। ऐसे ही कुमार गंधर्व टी.बी. की वजह से कमजोर पड़ गए, और छोटे आलाप गाने लगे। फ़ैयाज खान साहब को बाद में खून की उल्टियाँ होने लगी थीं। नहीं तो कोई छोटा आलाप क्यों गाएगा/गाएगी? हालांकि उस्ताद बड़े ग़ुलाम अली ख़ान यूँ भी आलाप छोटा ही लेते थे और बंदिश पर आ जाते थे लेकिन गौर से सुनने पर बंदिश भी उनके आलाप का ही अंग नजर आता है। मल्लिकार्जुन मंसूर बंदिश से आलाप में सहजता से आते-जाते रहते हैं। इनके ‘शॉर्ट-कट’ में ही ‘लॉन्ग-कट’ है।

आलाप सुनने के लिए किशोरी अमोनकर या उल्हास कशालकर की किसी लंबी रिकॉर्डिंग को उठा लें। और वक्त हो तो उस्ताद अमीर ख़ान को सुनें। उनके बारे में तो लोग मजाक करते कि वह इतना धीमा आलाप गाते हैं कि लोग दो मात्रा के बीच में एक कप चाय खत्म कर लें। उनके गुरु अब्दुल वाहिद ख़ान (किराना) इंदौर दरबार में साढ़े तीन घंटे तक मुल्तानी गाते रहे। महाराज ने अपने एक दरबारी को कहा कि उस्ताद को अब शांत कराओ, मैं भी आराम करूँ। उस्ताद ऊँचा सुनते थे। उन्हें लोग कहते रहे। पर उन्होंने गाना बंद नहीं किया और घंटे भर गाते ही रहे!

अब वैसे इतना लंबा गायन नहीं होता। आलाप भी छोटा और अक्सर बोल-आलाप मिल सकता है, यानी बोल के साथ आलाप। उसके बाद बंदिश की स्थायी गायी और प्रस्तुति खत्म। अंतरा गाने का रिवाज़ घटता ही गया। इसकी वजह है कि अब पूरी रात होने वाले आयोजन कम होते हैं। अहमदाबाद के सप्तक सम्मेलन, कलकत्ता के डोवर लेन सम्मेलन या ‘स्पिक-मकै’ के ‘ऑल नाइट कन्सर्ट’ जब होते हैं, तो संपूर्णता लिए लंबी प्रस्तुतियाँ सुनने को मिलती है। यह ‘टी-ट्वेंटी’ और ‘टेस्ट मैच’ का अंतर है। नमिता देवीदयाल एक धारवाड़ के स्कूल में हुए आयोजन का जिक्र करती हैं, जब ग्यारह घंटे तक विलायत ख़ान सितार बजाते रहे। उँगलियों से खून बहने लगा तो पट्टी बाँध ली, लेकिन बजाते रहे। यहाँ अगली पंक्ति में उस वक्त एक नवयुवक भीमसेन जोशी ‘वाह-वाह’ करते रात भर बैठे रह गए।

लेकिन पूरी प्रस्तुति सुनना क्यों बेहतर है?

सोचिए आप किसी फ़ाइव-स्टार में होटल में खाने गए हों, पहले आप सूप-वूप मँगा कर स्वाद बढ़ा रहे हों। ऐसे ही संगीत की शुरूआत ‘आलाप‘ से होती है। धीरे-धीरे। एक-एक स्वर से परिचय। सा…..ध……प…..। जो भी उस राग के मुख्य स्वर हैं। कई बार बस ‘नी’ तीन मिनट तक चलेगा। सितार में खास कर उस स्वर की गूँज, उसका विस्तार दिखाया जाएगा, उसकी शक्ति। ध्रुपद के आलाप (या खयाल में भी) अक्सर स्वर का उच्चारण नहीं करते। मतलब यूँ ‘सा रे…’ कह कर नहीं गाते, उसकी जगह ‘री रे ना ना ओम्’ (ध्रुपद) या ‘आss’ या कुछ अधूरे से स्वर ही बोलते हैं। ध्रुपदिए कहते हैं कि स्वर बोलने से गायक और श्रोता दोनों की तंद्रा भंग होती है। आलाप में आपको पुष्प की मात्र सुगंध मिलती है, फूल उठाकर सामने नहीं रख देते। तभी रहस्य बना रहता है। जिसके पास इंद्रिय है, वह पकड़ लेगा कि मोगरे की सुगंध है। मोगरा लाकर रखने की जरूरत नहीं।

आलाप में ही आगे आएगा- ‘जोर’। यानी उस राग की मुख्य स्वर-संरचना। घुमा-फिराकर बार-बार आगे-पीछे ले जाकर आपको राग से परिचय कराया जाएगा। अब आप झूमना शुरू करेंगें। एक सम्मोहन होगा। जैसे ‘सिज़्लर’ सामने रख दिया हो, और उसकी सुगंध फैल गई हो। अब तक तबला का एक थाप भी नहीं होगा। बस स्वर।

आलाप का क्लाईमैक्स ‘झाला’ है, लेकिन यह वादन (और ध्रुपद गायन) में होता है। यह गज़ब का अंश है। इस समय संगीतकार चरम पर होता है। यहाँ से रुकना असंभव लगता है। खयाल गायन में अगर झाला नहीं होता, तो गायक ‘तराना’ पकड़ लेते हैं- तानादेरेना….। तराना के शब्दों का कोई अर्थ नहीं है।

फिर आएगा ‘गत’ या ‘बंदिश’ यानी असल भोजन। पहले स्थाई और फिर अंतरा, अक्सर तीन लय में गाए-बजाए जाएँगे। विलंबित (धीमी) से मध्यम से द्रुत (तेज) लय तक। इसी दौरान तबला बजना शुरु होगा, और वही बंदिश की लय तय करेगा। या यूँ भी कि बंदिश की लय के हिसाब से तबला धीमा या तेज बजेगा। अब तो खेल में रोमांच होगा। इसके बाद अब उनकी मर्जी। कोई धुन पकड़ लेते हैं, कोई राग को तोड़ डालते हैं। जैसे रॉक गाने वाले गिटार तोड़ते हैं। वह अब आजाद हैं, उन्होनें राग पर फ़तह पा ली है।

ऊपर बताये अंग जरूरी नहीं हैं कि हर गायकी में हो ही। सभी अंग सुनने हों तो ग्वालियर के पंडितों की गायकी में अक्सर मिल सकता है। या किसी संगीत के विद्यार्थी की गायकी में। उस्तादों की गायकी में इतने अंग मिले न मिले। गायक-वादक के पास समय रहा तो एक लंबी प्रस्तुति होती है जो धीरे-धीरे विलंबित (धीमी गति) से द्रुत (तेज) लय तक जाती है, जिसे ‘बड़ा खयाल’ कहते हैं। समय कम हो तो यही सीधे द्रुत लय से बंदिश पर आकर गायी जाती है, और ‘छोटा खयाल’ कहलाती है। आजकल जब हर संगीतकार को कम ही समय मिलता है तो वे अक्सर छोटा खयाल ही गाते हैं।

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