हर पर्यटक स्थल पर कुछ प्वाइंट होते हैं, जहाँ आपको ले जाया जाता है। वहाँ दर्जनों लोग तस्वीर खिंचवा रहे होते हैं। हिल-स्टेशनों पर सनराइज प्वाइंट, सनसेट प्वाइंट, लवर्स प्वाइंट, सुसाइड प्वाइंट आदि। कुछ ऐसी जगह दिखा देंगे जहाँ किसी फ़िल्म की शूटिंग हुई। दो-चार छोटे-बड़े जलप्रपात दिखा देंगे, अंग्रेजों के जमाने का बंगला। तमाम हिल-स्टेशनों की सैर के बाद मैं इनसे पक गया। शायद इसलिए भी कि मैं स्वयं पहाड़ों में ही रहता हूँ, तो आखिर वे क्या नया दिखा देंगे?
इसलिए इस संस्मरण में मेघालय के मशहूर पर्यटक स्थलों को ख़ास तवज्जो नहीं दे रहा। सेवन सिस्टर्स फॉल हो या लिविंग रूट ब्रिज हो या शिलॉन्ग का संग्रहालय हो, वह जाकर देखने की चीज है। मैं क्या लिखूँ? मेरी रुचि संस्कृति को समझने और लोगों से बतियाने में अधिक है, जिसमें सबके अलग-अलग अनुभव हो सकते हैं। हफ्ते भर की सैर में सदियों पुरानी संस्कृति क्या खाक समझ आएगी, लेकिन प्रश्न तो जन्म ले सकते हैं।
1
भारत-बांग्लादेश सीमा पर एक शिव मंदिर दिखा, जो सीमा सुरक्षा बल ने बनवाया था। और भी मंदिर होंगे, मगर यूँ ही सफर में नज़र आया मेघालय का पहला मंदिर था। मंदिर से कुछ पाँच फीट दूर एक पिरामिडनुमा पत्थर था, जो भारत की सीमा का द्योतक था। उससे डेढ़ सौ गज दूर एक कंटीले तारों की बाड़ थी, जिसके दूसरी तरफ़ बांग्लादेश था। दूर कुछ बांग्लादेशी एक जलमग्न खेत के पास दिख रहे थे।
सीमा के साथ-साथ चलते हुए एक स्थान पर डेढ़ सौ गज की दूरी खत्म हो गयी। अब हमारी सड़क के साथ ही वह बाड़ थी। दूरी इतनी कि दोनों तरफ़ के लोग आराम से हाथ मिला या बतिया सकते थे। मैंने एक जवान से पूछा,
’यहाँ दोनों सीमा के बीच नो-मैन्स लैंड नहीं होने की कोई ख़ास वजह? आपलोगों को तो बहुत निगरानी रखनी पड़ती होगी? कोई भी बाड़ कूद कर आराम से आ सकता है’
‘ये स्पेशल केस है। हमारी तरफ़ के चार-पाँच गाँव हैं, जो जगह छोड़ने को तैयार नहीं थे। वहाँ म्यूचुअल एग्रीमेंट से ऐसा हुआ है। बाकी, आने के तो बहुत रास्ते हैं। लेकिन बहुत कम बांग्लादेशी छुप कर क्रॉस करते हैं। ये इलाक़ा सेफ है।’
यह बात अधिक स्पष्ट हुई, जब मैं डौकी चेकपोस्ट पहुँचा। वहाँ ट्रक की आवा-जाही तो ईद के कारण बंद थी, लेकिन बैग लटकाए छह बांग्लादेशी नवयुवक अपने पास दिखा रहे थे। पता लगा कि वे सुबह डौकी बाज़ार आकर कुछ छोटा-मोटा व्यापार करते हैं, और शाम को वापस लौट जाते हैं।
‘ये लोग टूरिस्ट के लिए सामान लाता है। अभी तो बंद है, लेकिन अच्छा रसगुल्ला लेकर लाता है। छोटा-मोटा सामान का चेकिंग भी ज्यादा नहीं होता है। ये लोग यहाँ फुटबॉल भी खेलने आता है। खेल के वापस चला जाता है।’, एक फल बेचते व्यक्ति ने कहा
चेकपोस्ट से नीचे की तरफ़ वह मशहूर उम्गोट नदी थी, जिसे भारत की सबसे साफ़ नदियों में गिना जाता है। इंटरनेट उन तस्वीरों से भरा है, जिसमें नदी के तल को स्पष्ट देखा जा सकता है। हालाँकि बरसाती मौसम के कारण पारदर्शिता घट गयी थी, लेकिन एक अंतर नज़र आ रहा था। भारत की सीमा तक यह नदी पन्ना (एमेराल्ड) की तरह हरी थी। बांग्लादेश पहुँचने तक इसका रंग उतरने लगा था।
सीमा के दोनों तरफ़ तमाम मछुआरे मछली मारने बैठे थे, लेकिन पर्यटक सिर्फ़ भारतीय हिस्से में दिख रहे थे। यूँ भी बांग्लादेशी हिस्से में न पहाड़ थे, न ही कुछ और दर्शनीय। लेकिन, एक अंतर समृद्धि और गरीबी का भी दिख रहा था।
‘किसी बांग्लादेशी को अगर खासी लड़की से प्यार हो जाए? शादी हो जाए? फिर तो वे मेघालय में रह सकते हैं?’, मैंने यूँ ही पूछा
‘कुछ शादी होता है। लेकिन उन लोगों को इधर जमता नहीं है। वो लोग आगे त्रिपुरा चला जाता है। मेघालय का लोग थोड़ा बंद रहता है। किसी से ज्यादा मिलता नहीं’
‘क्यों? क्रिश्चियन तो बहुत खुले दिमाग के होते हैं’, मैंने पुनः स्टीरियोटाइप दिमाग लगाया
‘ये सब जैन्तिया लोग, खासी लोग थोड़ा अलग है। ये उधर जैसा क्रिश्चियन नहीं है।’
उधर जैसा क्रिश्चियन से संभवतः यूरोपीय ईसाइयों की तरफ़ इशारा था। खैर, सबसे साफ़ नदी से वापस लौटते हुए शिलॉन्ग के रास्ते में एक बोर्ड दिखा-
एशिया का सबसे साफ़ गाँव

2
एशिया का सबसे साफ़ गाँव कैसा होगा? मुझे तो यह पदवी ही अतिशयोक्ति लगी कि किस एजेंसी ने पूरे एशिया के गाँव-गाँव घूम कर यह निर्णय लिया होगा। भला जापान के गाँवों के सामने भारतीय गाँव क्या टिकेंगे? लेकिन मेघालय के मॉलिनोंग गाँव में यह बोर्ड तो पूरे विश्वास के साथ लगा हुआ था। सोचा कि देख लिया जाए।
गाँव के बाहर एक चुंगी थी, जिससे टिकट खरीद कर गाँव में प्रवेश लेना था। वह टिकट काटने वाले एक हृष्ट-पुष्ट व्यक्ति थे, जो स्वयं मुस्कुरा कर अभिवादन करने आए। मुझे लगा कि वह कोई कर्मचारी होंगे। पता लगा कि वह गाँव के मुखिया हैं, और इस गाँव को यह सम्मान दिलाने में उनकी बड़ी भूमिका है। मुझे पहला झटका तो यही लगा क्योंकि मैंने किन्ही गाँव के मुखिया को यूँ झुक कर स्वागत करते कम ही देखा है।
गाँव में प्रवेश के लिए अच्छी खासी पक्की सड़क थी, जिसे उन्होंने पर्यटक चंदों और सरकार के सहयोग से बनवाया था। यह किसी यूरोपीय आधुनिक कॉलोनी और प्राचीन भारतीय ग्राम का गज़ब का कॉम्बो था। लकड़ियों और बाँस के घरों के मध्य पक्के मकान भी थे। उनके आस-पास छोटे-छोटे खेत और बागान थे। हर घर के सामने एक चिट्ठी और अखबार रखने का डब्बा था। हर गली में बाँस की बेंत का बना डस्टबिन।
‘ये जो छोटा-छोटा बाँस जैसा पौधा है, वह झाड़ू है’, मेरे चालक ने कहा
‘झाड़ू का पौधा? यह क्या है? क्या पौधा खुद ही सफाई कर देता है?’, मैंने हँस कर पूछा
‘इधर मेघालय में खूब होता है झाड़ू’
हम बात कर ही रहे थे कि देखा कुछ युवक और युवतियाँ सड़क बुहार रहे हैं। कचरा नहीं साफ कर रहे, बल्कि सड़क पर गिरे पत्तों को चुन कर बाँस के बास्केट में डाल रहे हैं। झाड़ू के पौधे, झाड़ू लगाते लोग। यह कैसी जगह है? इनको तो स्वच्छ भारत मिशन का ब्रांड एम्बेसडर बना देना चाहिए!
‘यहाँ कोई खाने की जगह होगी? कोई अच्छा रेस्तराँ?’, मैंने पूछा
‘है तो बहुत सारा। लेकिन एक पुराना जगह है गाँव में? बहुत बढ़िया भात-मछली, भात-चिकेन खिलाता है’
‘कोई और जगह नहीं है? जहाँ खाने का मेनू अच्छा हो?’
’उसके लिए तो शिलॉन्ग के तरफ चलना होगा। ये तो गाँव है’
हम एक पुराने से भोजनालय के सामने पहुँच गए, जिसका जीर्णोद्धार चल रहा था। यह किसी साधारण ग्रामीण ढाबे की तरह था।
’यहाँ तो बैठने की जगह भी अच्छी नहीं लग रही’, मैंने शहरी मिज़ाज की शिकायत की
‘आप अंदर जाकर देखना। अगर कहीं थोड़ा भी गंदा दिख गया तो आप शिलॉन्ग जाकर खा लेना’
अंदर सिर्फ़ दो युवतियाँ, एक मामूली रसोई, और मात्र तीन-चार बर्तनों में भोजन था। लेकिन, फर्श, दीवाल या मेज पर न एक दाग़, न निशान।
‘इतनी सफ़ाई करता कौन है? खाना कौन बनाता है?’
‘ये एक फैमिली सब कर लेता है। पचास कस्टमर रहने से भी कहीं गंदा नहीं रखता। सब साफ़ रखता है’
वहाँ भोजन कर लगा जैसे कोई घर बिठा कर खिला रहा हो। मैंने एक अचार की फरमाइश की जो उनके पास नहीं था। एक युवती पड़ोस के घर गयी, और थोड़ी देर में उस घर से वह भी आ गया। ऐसा तो वाकई गाँवों में ही होता है कि कुछ कम पड़ जाए तो पड़ोस से ले आए। साथ में यह निर्देश भी कि उनके पास भी इतना ही है, इससे ज्यादा नहीं मिल पाएगा।
इससे ज्यादा न मिल पाएगा का मूल कारण यह भी है कि गाँव का भोजन यथासंभव गाँव में उगा कर, मुर्गीपालन और मछली-पालन कर ही तैयार होता है। इसलिए उनके पास संसाधन सीमित हैं। गाँव में ही एक विद्यालय और एक गिरजाघर था। कुछ बुजुर्गों को छोड़ कर साक्षरता लगभग सौ प्रतिशत है।
गाँव के बीचोंबीच मैदान में बच्चे फुटबॉल खेल रहे थे। कुछ बच्चे वहीं एक ठूँठे पेड़ की शाखा में रस्सी बाँध कर उसे खींच रहे थे, और एक वयस्क आरी लेकर उसे काट रहा था। मुझे ताज्जुब हुआ कि इस प्रकृति-प्रेमी ग्राम में इस पेड़ पर यह जुल्म क्यों?
फिर लगा कि यह पत्रहीन, पुष्पहीन निर्जीव हो चुका वृक्ष अब अपनी आयु पूरी कर चुका है। गाँव को स्वच्छ रखने के लिए शायद इसे गिरा कर नए पेड़ लगाना ही उचित।
संभवतः प्रकृति-प्रेम खामखा भावनाओं का लबादा नहीं कि ठूँठा पेड़ भी न काटें; बल्कि प्रकृति के उस संतुलन को कायम रखना है जिसमें जीवन और मरण दोनों हैं।
संतुलन से एक अजीब राजनैतिक बात याद आयी।
मैंने पूछा, ‘मेघालय में भाजपा की सरकार है या कांग्रेस की?’
उत्तर मिला, ‘असल में…दोनों सरकार में ही है’
वाकई यह देश की इकलौती सरकार होगी जिसमें येन-केन-प्रकारेण इन दोनों धुर-विरोधी दलों के नेता एक ही गठबंधन में हैं!


3
मैं एक सड़क किनारे होटल में दाखिल हुआ, जिस पर लिखा था कि यहाँ सूअर का माँस और गोमाँस नहीं मिलता। चूँकि पूरे मेघालय में सूअर ही सूअर कटे पड़े थे, तो लगा कि देख लिया जाए यह महाशय कौन हैं। वह एक बंगाली मानुष थे, जो यहाँ आकर बस गए थे। उनके पास मछली और मुर्गा था, मगर सूअर और गाय नहीं थे। अच्छी अंग्रेज़ी बोल रहे थे, और दो किताबें भी ताक पर रखी थी। मुझे लगा कि राजनैतिक चर्चा के लिए वह व्यक्ति मुफ़ीद हैं।
‘की दादा! सरकार कैसा काम कर रही है यहाँ?’, भोजन ऑर्डर करने के बाद मैंने पूछा
’इधर तो सेंट्रल गवरमेंट करता है। बॉर्डर स्टेट है। अभी बहुत नया रोड सब बन रहा है। पाँच साल में सब चेंज हो जाएगा’
‘सेंटर मतलब बी जे पी?’
‘जो भी सेंटर में रहता है, करता है। बीजेपी को इधर अपना फुट जमाना है, तो ज्यादा काम कर रहा है’
‘लेकिन ये तो क्रिश्चियन स्टेट है’, मैंने बिना लाग-लपेट के पूछ लिया
‘इधर तो सब क्रिश्चियन स्टेट ही है। मणिपुर, मिजोरम…(मैंने जोड़ा अरुणाचल)…हाँ, लेकिन मेघालय थोड़ा अलग है’
‘कैसे? खासी, गारो के वजह से?’
‘हाँ! ये खासी लोग थोड़ा मिक्स है। ये लोग चर्च जाता है लेकिन अपना भाषा, अपना कल्चर नहीं छोड़ता है। दे आर हाफ क्रिश्चियन हाफ खासी…कुछ तो 80 परसेंट खासी है, 20 परसेंट क्रिश्चियन’
’मतलब?’
‘मतलब वो लोग चर्च कम जाता है। कुछ लोकल खासी चर्च भी है’
‘ये तो बहुत ही कॉम्प्लेक्स बात बोल रहे हैं आप। यानी वे खासी संस्कृति के साथ अपना अलग गिरजाघर बना रहे हैं?’
‘हाँ! उसको चर्च ऑफ गॉड बोलता है। बहुत खासी कंवर्ट भी नहीं हुआ। मेघालय में 70-75 परसेंट क्रिश्चियन है, बाकी स्टेट में 90 परसेंट है’
‘क्या ऐसे खासी मिल सकते हैं, जो कंवर्ट नहीं हुए? जो हिंदू हैं?’
‘मिलेगा। शिलॉन्ग में भी है। सोहरा में है। इधर सोहरा में आर के मिशन का स्कूल है। बहुत बच्चा पढ़ता है’
‘रामकृष्ण मिशन के? आर एस एस भी ऐक्टिव है, सुना है?’
‘नॉट स्योर…डू दे हैव स्कूल? आइ डॉन्ट नो’
‘सरस्वती शिशु मंदिर?’
‘एक्टिव होगा। आर एस एस और बीजेपी तो एक ही है’, उन्होंने हँस कर कहा
मेरी इच्छा थी कि मैं शिलॉन्ग वासी कवि-निर्देशक तरुण भारतीय से मिलूँ जिन्होंने इस विषय पर शोध किए हैं, लेकिन ऐसा संयोग बन न सका। ऐसी फौरी समझ मिली कि ईसाई और पारंपरिक खासी खेमों में कुछ खींच-तान चल रही है, वहीं संघ के कार्यकर्ता भी ग़ैर-ईसाई खासियों को हिंदू छत्र में लाने का प्रयास कर रहे हैं।
अखबार में खबर छपी थी-
आदिवासी मूल की राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू को भाजपा-समर्थित मेघालय लोकतांत्रिक गठबंधन पूर्ण समर्थन देगी
इससे पूर्व जब मैं गुवाहाटी के कामाख्या मंदिर गया था तो वहाँ अफ़रातफ़री मची थी कि द्रौपदी मुर्मू जी स्वयं मंदिर आ रही हैं, और कार्यालय में एक व्यक्ति कह रहे थे- आज कैंसिल हो गया है, दो दिन बाद आएँगी।
मैं सुन रहा था। सोच रहा था। तार जोड़ रहा था। कभी-कभी बातें तब तक अधूरी रखनी चाहिए, जब तक स्पष्ट न दिखे। सेवन सिस्टर्स फॉल पर भीड़ उत्साहित थी कि बादल छँट रहे हैं, जलप्रपात दिखने लगा है, तभी बादल फिर से आ गए।
आगे की कहानी खंड 3 में। यहाँ क्लिक करें
Author Praveen Jha writes a travelogue about Meghalaya, a beautiful state in North Eastern part of India
Read also
1 comment