इस पुस्तक में डॉ. अम्बेडकर का महिमा-मंडन नहीं है। जैसा पाश्चात्य लेखकों द्वारा लिखित जीवनी में होता है, एक सपाट और कहीं-कहीं आलोचनात्मक विश्लेषण है। यह पुस्तक की शुरुआत में ही स्पष्ट हो जाता है, जब वह अंबेडकर के अंबेडकर होने को संयोग मानते हैं। गांधी भी अपने जीवन को एक संयोग या दुर्घटना ही कहते थे, और शायद यह सभी जीवनों पर लागू है।
डॉ. अंबेडकर के संदर्भ में वह कई संयोगों को ज़िक्र करते हैं। उनके अस्पृश्यों में भी ख़ास कर ‘महार’ जाति में जन्म लेना, जिनकी राजनीतिक स्थिति (political clout) बेहतर थी। उनके पिता की नौकरी। उनको मिली शिक्षा। उनके समय की राजनैतिक स्थिति में उनकी पोजीशनिंग। सभी को उनके निर्माण में भूमिका निभाते दिखाते हैं। इसमें वह ज्योतिबा फुले से तुलना करते हैं, जिनको वही परिवेश, वही काल-खंड या वैसी उच्च शिक्षा नहीं मिली।
लेकिन, इन संयोगों का शत-प्रतिशत उपयोग अम्बेडकर की छवि को बहुत ही विस्तृत बना देता है। एक ऐसे व्यक्ति जिनका जीवन एक सतत सक्रिय प्रक्रिया है, जो कभी मद्धिम नहीं हुई। एक मिनट भी व्यर्थ नहीं किया। इस जीवनी में विमर्श ही विमर्श है। अंबेडकर के कार्यों का विवरण है। कोई ख़ामख़ा की क़िस्सेबाज़ी नहीं है।
इसका उपशीर्षक ‘जाति उन्मूलन का संघर्ष एवं विश्लेषण’ महत्वपूर्ण है। अंबेडकर कई बार पूरे जाति-विमर्श को शुरू से अंत तक समझाने के एक किरदार की तरह दिखते हैं। एक केंद्रीय धुरी जिसकी कई शाखाएँ दिखती हैं। कई विडंबनाएँ, कई अपूर्णताएँ भी।
पुस्तक में कुछ स्थानों पर ऐसा प्रतीत होता है कि मोहम्मद अली जिन्ना और अंबेडकर की अपनी-अपनी दृष्टियों में समानताएँ और अपूर्णता एक जैसी हैं। लेखक अंबेडकर को एक संगठन व्यक्ति के रूप में असफल दिखाते हैं। उनके जनाधार में भी कमियाँ दिखाते हैं। ख़ास कर ILP के संगठन विषय पर वह इसे नागपुर के RSS का विलोम बताते हुए यह लिखते हैं कि शाखाओं की तरह ही वेशभूषा और अनुशासन की कल्पना की गयी। हालाँकि वह आरएसएस के मुक़ाबले इसकी संगठन को कमजोर बताते हैं। उस संगठन में अंबेडकर की एकल तानाशाही भूमिका को भी वह रेखांकित करते हैं। उनके आह्वान में किसी अन्य दलित नेता से विमर्श के स्कोप कम थे। अंबेडकर ही सर्वेसर्वा थे।
किताब में पूना पैक्ट पर विमर्श कुछ कम लगा। गांधी की उपस्थिति इस कारण अपेक्षाकृत सीमित है, हालाँकि बात समझा दी गयी है, और स्पष्ट भी है। लेकिन, श्रोता रूप में ऐसा लगा कि सायास गांधी की आलोचना कम की गयी है।
आखिरी खंड में स्वतंत्र भारत में अंबेडकर के विषय में कुछ निराशावादी समाप्ति है। जैसे अंबेडकर के सभी स्वप्न एक-एक कर बिखर रहे हों। जैसे उनका कद बढ़ने की बजाय घटता गया हो। एक तरह की विरक्ति दिखने लगती है। मृत्यु से पूर्व उनकी अंतिम राजनैतिक कल्पना ‘रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया’ दलितों के सबसे सीमित और कमजोर संगठन की तरह नज़र आती है।
इस पुस्तक को स्टोरीटेल पर सुनने में लगभग आठ घंटे लगे, जो गाड़ी में यात्रा करते हुए एक हफ्ते से अधिक में सुनी। दमदार आवाज में और पूरे प्रवाह में समझा-बूझा कर पढ़ा गया है। यह मूल पुस्तक अंग्रेज़ी में मेरे पास थी, और पेरियार विषयक लेखन में संदर्भ भी लिए। लेकिन हिंदी में यह सुन कर जैसे कई गिरह बेहतर खुल गए।
Author Praveen Jha narrates his experience about book Ambedkar by Christophe Jaffrelot