क्या भारत हिंदू राष्ट्र बनने की राह पर है?

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इंडिया- På vei mot hindu nasjonalisme
पुस्तक में एक स्थान पर हिंदू राष्ट्र के चार संभावित विकल्प बताए गए हैं। पहला कि हिंदू राष्ट्र बने, किंतु संवैधानिक अधिकार बराबर रहें। जैसे नॉर्वे आदि ईसाई राष्ट्र की तरह। दूसरा कि हिंदू राष्ट्र बने और हिंदुओं को कुछ अधिक अधिकार मिले, जैसा भाजपा चाहती है…

दक्षिण नॉर्वे के क्रिस्तियानसंड की एक दुकान में यह किताब दिखी- ‘भारतः हिंदू राष्ट्रवाद के रास्ते पर’ (India: På vei mot Hindu Nasjonalisme) इसे दो पेंशनधारी बुजुर्गों ने लिखा है, जो यौवन में नॉर्वेजियन माओवादी दल से जुड़े थे। इन्होंने इससे पूर्व पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान पर भी पुस्तकें लिखी है, और लंबा समय इन क्षेत्रों में बिताया है।

भारत में इन्होंने हिंदू राष्ट्रवाद को अस्सी के दशक से लेकर हालिया संपन्न उत्तर प्रदेश चुनाव तक अलग-अलग यात्राओं से समझने का प्रयास किया है। पुस्तक की शुरुआत होती है नाथूराम गोडसे के चित्र से। शीर्षक है- ‘एक हत्यारा जो पूज्य हो गया’।

वे लिखते हैं कि भारतीय राजनीति में एक केंद्रीय विरोधाभास यह है कि सत्ताधारी दल ने गांधी को जितना महत्वपूर्ण स्थान दिया है, उतना ही वह नेपथ्य में गांधी-विरोधियों को भी देते रहे हैं। यह विरोधाभास एक दोगलापन की शक्ल ले लेता है क्योंकि नेपथ्य ही उनका मुख्य चरित्र है।

उसके बाद पुस्तक दिल्ली में हुए सीएए-एन आर सी विरोध और दंगों से गुजरती है, कुछ साक्षात्कार लेती है। एक अच्छा अध्याय मुझे लगा ‘हिंदुत्व’ जिसमें इस शब्द और इसके राजनैतिक सफ़र को शुरू से ट्रैक किया गया है। लगभग तीस पृष्ठों में स्टडी कैप्सूल की तरह। इसी के बाद भाजपा की आइडियोलॉजी, और हिंदुत्व-रक्षक पर अध्याय हैं।

एक अध्याय है- क्या योगी आदित्यनाथ अगले प्रधानमंत्री होंगे? लेखक की भविष्यवाणी है कि अगर वह यह चुनाव (2022) जीत जाते हैं, तो प्रधानमंत्री मोदी के बाद इस पद के लिए उनसे बड़ी हस्ती कोई नज़र नहीं आता। लगभग लिख दिया गया है कि 2024 अथवा 2029 में उनका इस पद पर पहुँचना तय है।

इस अध्याय के साथ ही पुस्तक का रुख बदलता चला जाता है। वह भाजपा को दुनिया का सबसे बड़ा दल, आरएसएस को सबसे बड़ा एनजीओ, और इस संगठन को सबसे संगठित यूनिट कहते हैं। उनका आँकड़ा है कि इनके मात्र वाट्सऐप्प ग्रुपों में ही नॉर्वे की जनसंख्या से अधिक लोग सक्रिय हैं।

लेखक शशि थरूर से मिल कर ‘मैं हिंदू क्यों हूँ’ और भंवर मेघवंशी से मिल कर ‘मैं हिंदू क्यों नहीं हूँ’ पुस्तकों पर बात करते हैं। वे सेकुलरिज्म को एक अस्पष्ट शब्द मानते हैं, जिसे नेहरू, अंबेडकर और बाद में शशि थरूर भी अलग-अलग नज़रिए से देखते हैं।

वह एक अमरीकी लेखक को उद्धृत करती हैं, “जिस देश में धर्मनिष्ठता अधिक हो, वहाँ सेकुलर होना कठिन है। किंतु जिस देश में धर्मनिष्ठता अधिक हो, वहाँ सेकुलर होना अधिक आवश्यक भी हो जाता है”

पुस्तक में जाति-संरचना और भाजपा पर एक रोचक अध्याय है, जिसमें प्रो. बदरी नारायण की पुस्तक से मिलते-जुलते निष्कर्ष हैं। वह भाजपा के समर्थन में उच्च वर्ग से अधिक पिछड़े वर्गों के प्रतिनिधित्व को अंडरलाइन करते हैं। इसे चुनावी जीत में बड़ा फैक्टर मानते हैं।

पुस्तक में एक स्थान पर हिंदू राष्ट्र के चार संभावित विकल्प बताए गए हैं (कंचन चंद्रा से साक्षात्कारित)। पहला कि हिंदू राष्ट्र बने, किंतु संवैधानिक अधिकार बराबर रहें। जैसे नॉर्वे आदि ईसाई राष्ट्र की तरह। दूसरा कि हिंदू राष्ट्र बने और हिंदुओं को कुछ अधिक अधिकार मिले, जैसा भाजपा चाहती है। तीसरा कि अल्पसंख्यक रहें, काम करें किंतु हिंदू राष्ट्र का हिस्सा न कहलाएँ, जैसा संघ चाहती है। चौथा कि यह हिंदू धर्म के नियमों से संचालित (theocracy) हो, जैसा योगी आदित्यनाथ चाहेंगे।

कुछ और अध्याय हैं, जैसे कश्मीर, नक्सल आदि पर। किंतु एक अध्याय की चर्चा करता हूँ। वहाँ उत्तर-पूर्व के राज्यों का विश्लेषण है, जहाँ हिंदू अल्पसंख्यक हैं, फिर भी भाजपा आगे बढ़ रही है। वहाँ लेखक भाजपा की रणनीति का दूसरा पहलू दिखाती है।

अंत में आशीष नंदी से बातचीत है, जिसमें उनका वह मशहूर वाक्य दोहराया गया है कि जब वह वर्तमान प्रधानमंत्री से वर्षों पहले मिले थे तो एक मनोवैज्ञानिक की नज़र से उन्हें वे सभी गुण दिखे जो किताबों में एक authoritarian fascist के विषय में लिखे होते हैं।

इस पुस्तक को कुछ भारतीय पाठक तो इसलिए भी ख़ारिज कर सकते हैं कि विदेशी भला क्या भारत को समझेंगे। यूँ भी यह पुस्तक अभी नॉर्वेजियन के अतिरिक्त किसी और भाषा में आयी नहीं है, तो यह रिकमेंडेशन के तौर पर लिख भी नहीं रहा। चूँकि भारत के विषय में एक कम बोली जाने वाली भाषा में लिखी गयी है, तो सोचा बताता चलूँ।

 

Indisk forfatter Praveen Jha skriver en bokanmeldelse om India: På vei mot Hindu Nasjonalisme.

 

 

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