दुर्लभ रागों के विशेषज्ञ: अलादिया ख़ान (A rare raga exponent)

जब अलादिया ख़ान साहब की आवाज लंबे समय तक अमलेता में तान खींचते हुए चली गयी, तो वह कहीं के नहीं रहे। ऐसे समय में उन्होंने यही तकनीक सोची कि वह राग गाओ जो कोई न गाता हो

भारत में कुछ चिकित्सक लिखते हैं- ‘दुर्लभ रोग विशेषज्ञ’ (rare disease specialist). ऐसी कोई डिग्री होती नहीं, लेकिन वह अपनी पहचान बना लेते हैं कि हल्के-फुल्के निमोनिया वगैरा नहीं देखेंगे। कुछ मामला फँसेगा, तो निपटाएँगे। एक हड्डियों के दुर्लभ रोग विशेषज्ञ मेरे वरिष्ठ भी हैं। आए दिन अखबार में रहते। उनका मानना है कि साधारण हड्डी जोड़ते कमाई तो होगी, नाम न होगा। उसके लिए कुछ दुर्लभ रोग ढूँढना होगा, जो लाखों में एक को होता हो। और इस तरह उनकी ओपीडी दुर्लभ रोगियों से भरी होती जिनको बाकी जगह से जवाब मिल गया होता।

संगीत में एक दुर्लभ राग विशेषज्ञ भी हुए। जब अलादिया ख़ान साहब की आवाज लंबे समय तक अमलेता में तान खींचते हुए चली गयी, तो वह कहीं के नहीं रहे। ऐसे समय में उन्होंने यही तकनीक सोची कि वह राग गाओ जो कोई न गाता हो। कॉमन रागों में तो मुकाबला तगड़ा होगा, दुर्लभ में कहाँ भिड़ोगे?

इस तरह जयपुर-अतरौली (अलादिया ख़ान) घराने में एक फ़ेहरिश्त बनी, और ऐसे-ऐसे भूले बिसरे राग गाए गए कि सब हैरान रहते। दूसरे बिहाग गाएँगे, तो वह बिहगड़ा गाएँगे। ‘निषाद’ से ट्विस्ट कर देंगे। और लोग मालकौंस तो वे संपूर्ण मालकौंस। दूसरे चांदनी केदार तो वे बसंती केदार। अब करो मुकाबला?

यही उनके अक्खड़ से नरम शिष्यों और घराने के गायिका-गायकों में भी ट्रांसफ़र हो गया। इस घराने में आइए। यहाँ दुर्लभ राग मिलेंगे। इनकी कोई शाखा नहीं।

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