संगीत के चितेरे (Musicologists)

म्यूजिकोलॉजिस्ट। इसका हिन्दी अनुवाद मिलना कठिन है। लोग संगीत-अध्येता या संगीत-समीक्षक प्रयोग करते हैं। पश्चिम में यह एक अलग विधा ही है।

मैंने एक मौखिक सर्वे किया कि हिंदुस्तानी संगीत लोग क्यों नहीं सुनते? उसमें अधिकतर लोगों ने कहा कि समझ नहीं आता। मैं रोज सुनता हूँ, और मुझे भी समझ नहीं आता। तो यह बात सत्य ही है। लेकिन दो-तीन दशक पहले ऐसी बात नहीं थी। उस वक्त साक्षरता-दर कम होने के बावजूद हिंदुस्तानी संगीत की बयार बहती थी, और आज जब ज्ञान-युग (इन्फॉर्मेशन एज) है तो लोगों को समझ नहीं आता? 

रामचंद्र गुहा एक किताब में लिखते हैं कि क्रिकेट के खेल के बाद हिंदुस्तानी संगीत का कार्यक्रम होता, और सभी खिलाड़ी और दर्शक इसका इंतजार करते। क्रिकेट के खेल के बाद? आप सोचिए कि भारत वर्ल्ड-कप जीत गया, लोग पटाखे फोड़ रहे हैं, बीयर की बोतलें खुल रही हैं, और वहाँ अगर कोई तानपुरा लेकर आ जाए? यह कैसे मुमकिन है? लेकिन यह दशकों तक होता रहा, और वह भी अंग्रेज़ों के जमाने में। आज तो हम आजाद हैं।

रामकृष्ण दास लिखते हैं, “जब देवलोक में सभी देवता यज्ञ-कर्मों के बाद की शांति और युद्ध के कोलाहल से मानसिक असंतुलन में जाने लगे तो ब्रह्मा जी के पास गए। उन्होंने यजुर्वेद और अथर्ववेद से सूत्र लेकर गंधर्ववेद की रचना की, जिसमें संगीत-नाटक और कला को समाहित किया। पृथ्वी के पहले म्यूजिकोलॉजिस्ट ब्रह्मा थे।”

उन्होंने अंग्रेज़ी में लिखा- म्यूजिकोलॉजिस्ट। इसका हिन्दी अनुवाद मिलना कठिन है। लोग संगीत-अध्येता या संगीत-समीक्षक प्रयोग करते हैं। पश्चिम में यह एक अलग विधा ही है। ऐसा व्यक्ति जो संगीत का वैज्ञानिक और ऐतिहासिक विश्लेषण करे। अब मैं अगर संगीत पर क़िस्सों और किंवदंतियों की किताब लिख दूँ, तो मैं क्या हुआ? कुछ नहीं। म्यूजिकोलॉजिस्ट गजेंद्र नारायण सिंह हम जैसों को ‘अधकचरे संगीत समीक्षक’ कहते। और ठीक ही कहते। यह एक अलग विशेषज्ञता है।

भारतीय इतिहास में तीन शब्द मिलते हैं-

  1. संगीत शास्त्री: यह म्यूजिकॉलॉजिस्ट के सबसे करीब है, जो संगीत का वैज्ञानिक विश्लेषण स्वरों और श्रुतियों (फ़्रीक्वेंसी) के आधार पर करते।
  2. वाज्ञेकार: ये आज के कम्पोजर और गीतकार को मिला कर बना समूह है। ये गीत-बंदिशें रच कर उसकी स्वरमाला बनाते।
  3. नायक: ये आज के संगीत-गुरु या प्रशिक्षक के समकक्ष हैं। इनमें संगीत के सैद्धांतिक ज्ञान के अतिरिक्त प्रायोगिक ज्ञान भी होता है। जैसे रामाश्रय झा ‘रामरंग’ इस श्रेणी में कहे जा सकते है। 

ब्रह्मा और नारद की आयु गणना तो असंभव है। लेकिन ये तथ्य मिलते हैं कि यह ई.पू. 1500 से पूर्व की बात रही होगी कि ‘नारदीय शिक्षा’ लिखि गयी होगी। भरत मुनि का नाट्यशास्त्र संभवत: ई.पू. 200 की बात होगी। लेकिन भरत नाट्यशास्त्र में जिस तरह संगीत की बारीक बातों का विवरण है, इसका अर्थ है कि वर्षों पहले से संगीत पढ़ा-लिखा जाता रहा होगा। भरत नाट्यशास्त्र में वादी, सम्वादी, मूर्छना और तान का भी विवरण है, और वाद्य-यंत्रों की भी पंजिका है। आखिर यह सब कैसे लिख दिया गया, जो आज तक मान्य है?

उनके बाद मातंग देव का काल खंड पाँचवी से आठवीं सदी के मध्य बताया जाता है। उन्होंने रागों की विस्तृत व्याख्या ‘बृहद देशी’ में की। 

बारहवीं सदी में कार्नाट वंश के मिथिला नरेश न्यायदेव ने भरत मुनि के नाट्यशास्त्र का भाष्य लिखा- भरत भाष्य (या सरस्वती हृदयालंकार)। लगभग उनके समकालीन सारंग देव ने ‘संगीत रत्नाकर’ की रचना की। यह तो अब तक एक मैनुअल के रूप में प्रयोग में है। 

तेरहवीं सदी में गोपाल नायक और अमीर खुसरो जैसे म्यूजिकोलॉजिस्ट हुए। अमीर ख़ुसरो ने भारतीय संगीत परंपरा में मध्य-एशिया की परंपराओं का भी सम्मिलित कर क़व्वाली और तराना जैसी चीजों को लाया।

चौदहवीं सदी में मिथिला के ज्योतिरीश्वर ठाकुर ने ‘वर्णरत्नाकर’ की रचना की, जिसमें कई रागों का विवरण तो किया ही, इसे लोक-परंपरा से भी जोड़ा। लगभग उसी समय विजयनगर साम्राज्य के विद्यारण्य ने कार्नाटिक संगीत के मेलाकर्ता पद्धति का विवरण लिखा। यह हिंदुस्तानी संगीत के थाट के समकक्ष है। 

पन्द्रहवीं सदी में मान सिंह तोमर संगीत के अध्येता हुए, जिनकी पुस्तक का सत्रहवीं सदी में फ़ारसी अनुवाद औरंगज़ेब के समय फकिरल्लाह ने किया। यह ‘राग दर्पण’ के रूप में उपलब्ध हुआ। उसी समय दक्षिण में वेंकट मखी ने कर्नाटिक संगीत को 72 मेला में बाँटा। 

अठारहवीं सदी में पहली बार पश्चिमी शास्त्रीय संगीत की नज़र से हिंदुस्तानी संगीत को देखा गया, जब विलीयम जोंस ने ‘म्यूज़िकल मोड्ज़ ओफ़ हिंदूज’ लिखा। उसी समय बंगाल के कृष्णानन्द व्यास सागर ने ‘संगीत राग कल्प द्रुम’ की रचना की।

उन्नीसवी सदी में सुरेंद्र मोहन टेगोर ने अंग्रेज़ी में एक बेहतरीन संगीत लेखन संग्रह किया है। आख़िर बीसवीं सदी में पूरे भारत में घूम घूम कर संगीत पद्धितियों को संकलित और वर्गीकृत करने का श्रेय पंडित वी एन भातखंडे को जाता है।

यह कड़ी रुकी नहीं। चलती रही। संगीत पर किताबें लिखी जाती रही। पंडित ओंकारनाथ ठाकुर, आचार्य बृहस्पति, गजेंद्र नारायण सिंह, कुमार प्रसाद मुखर्जी, रामाश्रय झा रामरंग, दीपक राजा, प्रेमलता शर्मा…… यतींद्र मिश्र हिंदी में नियमित रोचक संगीत लेखन कर रहे हैं। आज के समय पढ़ने वाले ज़रूर काम हैं। लेकिन जब किताबें मौजूद हैं तो कोई ना कोई गुणी ज़रूर इसकी थाह ले रहा होगा।

Music books for free download:

क्रमिक संगीत मालिका (Pandit Vishnu Bhatkhande)

Hindu music from various authors, compiled by Surendra Mohan Tagore

Ragas and Raginis by Prof. O. C. Ganguly

A history of Indian Music by Swami Prajnananda

संगीत चिंतामणि (आचार्य बृहस्पति)

संगीति शब्द कोश by Bimal Roy

Indian Aesthetics and Musicology by Premlata Sharma

संगीतज्ञों के संस्मरण (विलायत हुसैन ख़ान)

संगीत अर्चना

संगीत राग दर्शन

Few books for purchase:

The Lost World of Hindustani music by Kumar Prasad Mukhopadhyaya

कुदरत रंग बिरंगी by Kumar Prasad Mukherjee

सुर की बरादरी (यतीन्द्र मिश्रा)

अभिनव गीतांजलि (रामाश्रय झा ‘रामरंग’)

And of course, a book by myself – ‘वाह उस्ताद’ on this link.

 

 

2 comments
  1. सारगर्भित आलेख, संगीतशास्त्रकारों एवं ग्रंथों के विषय में जानकारी देने का एक अच्छा प्रयास।
    इसी कड़ी में पं० विष्णू नारायण भातखण्डे जी का पारम्परिक बन्दिशों को अपनी पुस्तक क्रमिक पुस्तक मालिका में संग्रह करने का बड़ा श्रेय जाता है। ठाकुर जयदेव सिंह जी,प्रो०मुकन्द लाठ, दक्षिण भारत के प्रो०आर०सत्यनारायण, डा०सुभद्रा चौधरी,डा० अनिल बिहारी व्यवहार जी हैं ।
    इसके अलावा इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र प्राचीन ग्रंथों की पाण्डुलिपियों का सम्पादन एवं अन्य भाषाओं में अनुवाद का कार्य भी कर रही है। मैं भी उसी से संबंधित कार्य से जुड़ी हूं।

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